#BirthdaySpecial:  देश के लिए छोड़ी पत्‍नी, उसूलों की वजह से टूटी सांस

मुंबई। संगीत की दुनिया ने आवाज ही पहचान होती है। शरीर रहे न रहे उस आवाज के छेड़े हुए सुर हमेशा के लिए यादों में बस जाते हैं। आज व‍ही यादें मोहम्‍मद रफी को याद करती हैं। सुर और साज से संगीत को सजाकर मोहम्मद रफी ऐसी नग्‍में पेश की है कि उनके जाने के बाद की अनगिनत पीढि़यां उन्‍हें याद करती रहेंगी। आज मोहम्मद रफी के 93वें जन्‍मदिन के मौके पर हम उनसे जुड़ी यादों को ताजा करेंगे।

रफी का जन्म 24 दिसंबर, 1924 को अमृतसर के पास स्थित कोटा सुल्तान सिंह में हुआ था। घर में सब उन्‍हें प्‍यार से फीको बुलाते थे। संगीत के लिए रफी का प्‍यार बचपन से ही दिखने लगा था। बचपन में फकीर को गाते हुए सुनकर रफी गाना गाते थे।

उस नादान बच्‍चे को कोई अंदाजा भी नहीं था कि यही संगीत, सुर और साज उनकी जिंदगी बन जाएंगे और आखिरी सांसों तक उनका साथ निभाएंगे। 1935 में पिता के लाहौर जाने के बाद रफी ने भट्टी गेट के नूर मोहल्ला में हजामत का काम करना शुरू कर दिया था।

रफी का परिवार उनकी गायकी की काबीलियत को समझ नहीं पाया था। अगर रफी के बड़े भाई के दोस्‍त अब्दुल हमीद ने उनकी प्रतिभा को न समझा होता तो सुरों की दुनिया इस सरताज से अछूती रह जाती। वो अब्‍दुल ही थे जिन्‍होंने रफी के घरवालों को समझाया और मनाया, जिससे कि वे उन्‍हें मुंबई जाने दें।

उस्ताद अब्दुल वहीद खां, पंडित जीवन लाल मट्टू और फिरोज निजामी से शास्त्रीय संगीत सीखकर रफी ने 13 साल की कच्‍ची उम्र में पहली पब्लिक परफॉर्मेंस दी।

रफी ने हिंदी फिल्म गांव की गोरी से 1944 में डेब्‍यू किया था। इस बात से कोई भी इंकार नहीं कर सकता है कि वे एक महान गायाक थे। उनके गानों में हर तरह के इमोशन होते थे। मस्‍ती, खुशहाली, दर्द, विरह-वेदना कौन स ऐसा इमोशन नहीं रहा जिसे उन्‍होंने अपनी आवाज में न उतारा हो।

रफी को जितना अपनी गायकी से प्‍यार था उतना ही देश से भी था। देश प्रेम ने उनसे उनकी पत्‍नी को हमेशा के लिए अलग कर दिया। पार्टीशन के दौरान रफी की पत्‍नी बशीरा ने भारत आने से इंकार कर दिया था। पत्‍नी बशीरा और देश भारत के बीच रफी ने देश को चुना। इसके बाद बशीरा लाहौर चली गईं और कुछ समय बाद रफी ने बिलकिस से दूसरी शादी कर ली। दोनों शादियों से उन्‍हें चार बेटे और तीन बेटियां हुईं।

रफी ने संगीत को अपनी पुरी जिंदगी दे दी। उनकी आखिरी सांसे भी इसी के नाम रही। रफी की दर पर जाने वाला कभी खाली हाथ नहीं लौट सकता था। उनके इसी उसूल ने उनकी जान ले ली। 31 जुलाई, 1980 को संगीतकार श्यामल मित्रा उनके घर पहुंचे थे।

रफी को उनके लिए बांग्ला भजन रिकॉर्ड करना था। तबियत नासाज होने के बावजूद रफी ने श्यामल मित्रा को गाने के इंकार नहीं किया। पत्‍नी के लाख मना करने पर भी उन्‍होंने अभ्‍यास करना शुरू कर दिया था।

इस हालत में भी पत्‍नी से रफी ने कहा था, ‘रफी के घर से कोई खाली हाथ नहीं जाता। इसलिए गाना तो गाऊंगा।’ रफी के दर्द उनकी आवाज और उनका साथ नहीं दिया। नजदीक के अस्पताल में सुविधाएं न होने की वजह से उन्‍हें बॉम्बे हॉस्पिटल ले जाया गया। लेकिन तब तक बहुत देर हो गई थी। उनकी सांसों  ने उनका साथ छोड़ दिया था।

डॉक्टर ने भी बहुत निराशा से बोले थे, ‘हम रफी साहब को नहीं बचा पाए।’ रफी की मौत की खबर हर किसी को सदमें में डाल दिया था। आज भी उनके जाने का गम लोगों के दिल में है।

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