यूं ही नहीं कहते… ‘जिसे न दे मौला, उसे दे आसिफ-उद-दौला’, ये है असली माजरा

इमामबाड़ाउत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ अपनी ऐतिहासिक इमारतों के लिए खासा प्रसिद्ध है। लखनऊ “नवाबों के शहर” के नाम से जाना जाता है। अपनी तमाम ख़ूबसूरती के बीच इस शहर में स्थित इमामबाड़ा इसकी शोभा पर चार चांद लगता है।

इमामबाड़ा का इतिहास

इमामबाड़ा को आसफी इमामबाड़ा के नाम से भी जाना जाता है क्‍योंकि इसे 1783 में लखनऊ के नबाव आसिफ – उद – दौला द्वारा बनवाया गया था।

इमामबाड़े के परिसर में एक आसफी मस्जिद है, जहां मुस्लिम समाज के लोग ही जा सकते हैं। यहीं पर विश्व-प्रसिद्ध भूलभुलैया बनी है, जिसमें प्रवेश करने वाले लोग रास्ता भूल जाते हैं। इसीलिए अब यहां की सैर करने वाले केवल गाइड के साथ ही इसके अंदर जाते हैं।

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इस इमामबाड़े के अंदर अंडरग्राउंड कई रास्‍ते हैं। इनमें से एक गोमती नदी के तट पर खुलता है तो एक फैजाबाद तक जाता है। वहीं, कुछ रास्‍ते इलाहाबाद और दिल्‍ली तक भी पहुंचते थे। मौजूदा समय में इन रास्तों को सरकार द्वारा सील कर दिया गया है।

इमामबाड़े की सबसे बड़ी खासियत उसके बनाये जाने के कारण में छुपी हुई है। इमामबाड़े को आज हम एक पर्यटन स्थल की तरह देखते हैं लेकिन इसके बनने के पीछे एक इतिहास है जो नवाब की इंसानियत की मिसाल पेश करता है।

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इमामबाड़े के बनाए जाने के पीछे एक दिलचस्प कहानी है। इसका निर्माण नवाब ने आम जनता की मदद के लिए करवाया था। माना जाता है कि सन् 1783 में लखनऊ में रोजगार की कमी की वजह से भयावह भुखमरी की समस्या आ गई थी। आवाम की भलाई और भर पेट भोजन की व्यवस्था करने के लिए इमामबाड़े के निर्माण का निर्णय लिया गया, जिसने हजारों की संख्या में लोगों को रोजगार मुहैया कराया।

नवाब के इस परोपकारी और इंसानियत के चलते ये कहावत बनी कि:

“जिसे न दे मौला, यानी भगवान, उसे दे आसफुउद्दौला”

 

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