वो प्रसिद्ध पत्रकार जो विदेशी होकर भी देशी है, जानिए हम क्यों कर रहे हैं इनकी बात
नई दिल्ली। अधिकांश भारतीयों से भी ज्यादा भारतीय परिवेश में रचे-बसे सर मार्क टुली का लालन-पालन भले ही अंग्रेजियत के साथ हुआ, लेकिन उनको भारत से लगाव बचपन से ही रहा है। जीवन के अस्सी से ज्यादा वसंत देख चुके जानेमाने ब्रॉडकास्टर व लेखक कभी पादरी बनने की आकांक्षा रखते थे और इसके लिए उन्होंने धर्मशास्त्र में डिग्री भी हासिल की। लेकिन बाद में घटनाक्रम कुछ ऐसा बदला उन्हें भारत वापस लौटना पड़ा। टुली बताते हैं कि पत्रकारिता उनकी पसंद नहीं थी, लेकिन नियति को यही मंजूर था और भारत जो शुरू में उनको पहचान नहीं दिला पाया आज वही उनका घर है।
टुली 1935 में भारत में एक सफल व्यवसायी के घर पैदा हुए थे, जिनकी छह संतानें थीं और उस समय के कलकत्ता में उनका कारोबार था। एक साक्षात्कार में टुली ने अपने अतीत को याद करते हुए कहा, “मेरी मां के पूर्वज काफी समय से भारत में निवास करते थे, यहां तक कि 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के भी पहले से वे यहां रह रहे थे।
मेरे परदादा के पिताजी पूर्वी उत्तर प्रदेश में अफीम के कारोबारी थे और मेरे दादाजी पटसन का व्यवसाय करते थे। मेरी मां आज के बांग्लादेश में पैदा हुई थी और मेरा जन्म कलकत्ता में हुआ था। हमारी जिंदगी बिल्कुल ब्रिटेन के लोगों जैसी रही है।”
उन्होंने बताया कि उन्हें इस बात की बिल्कुल भी अनुमति नहीं थी कि भारत से उनकी पहचान हो। तुली ने कहा, “हमें इस संस्कृति का हिस्सा बनने से मना किया जाता था। हमारी यूरोपीय आया हमें हिंदी या अन्य भाषाएं सीखने से मना करती थी और इस बात पर जोर डालती थी कि हम सिर्फ अंग्रेजी ही बोलें।”
उन दिनों ब्रितानी बच्चों को शिक्षा के लिए स्वदेश भेजने का रिवाज था, लेकिन टुली जिस समय बड़े हो रहे थे, उस समय पश्चिमी दुनिया में द्वितीय विश्वयुद्ध अपना कहर बरपा रहा था। मार्क को प्रारंभिक शिक्षा के लिए दार्जिलिंग भेजा गया।
अपने उन दिनों को याद करते हुए मार्क टुली ने कहा, “मेरे लिए वे दिन निराले थे। मुझे उस जगह से बहुत लगाव हो गया था, क्योंकि वह प्रकृति सान्निध्य में था। मैं बहुत ज्यादा बड़ों की देखरेख में नहीं था और मेरे प्रधानाध्यापक बहुत उदार थे। हम बाजार जाते थे और आजाद होकर सैर-सपाटे करते रहते थे।”
फिर उनके पिता को मैनचेस्टर में काम मिल गया और टुली उनके साथ चले गए। उनका बचपन ब्रिटेन के बोर्डिग स्कूल में बीता और भारत काफी पीछे छूट गया। मतलब इसका ख्याल दिलों-दिमाग से उतार गया। फिर तो वापस लौटने का कोई सवाल ही नहीं था।
उन्होंने बताया, “इसके बाद मैं कैंब्रिज गया और चूंकि मैं पादरी बनना चाहता था, इसलिए मैंने धर्मशास्त्र और इतिहास में डिग्री हासिल की। मैं सच में पादरी बनना चाहता था, लेकिन यह हो न सका। आर्कबिशप को मुझमें पादरी के गुण नजर नहीं आए, जबकि मैं गिरजाघर का बहुत आदर करता था और आज भी करता हूं।”
इसके बाद चार साल तक टुली एक एनजीओ के लिए काम करते थे। फिर 1964 में उन्होंने बीबीसी में काम करना शुरू किया। यहां वह पत्रकार के रूप में नहीं, बल्कि मध्यम वर्ग की वरिष्ठता श्रेणी में पर्सनल मैनेजर के तौर पर आए थे। इसके अगले ही साल 1965 में अचानक उनको नई दिल्ली में जूनियर एडमिनिस्ट्रेटिव एसिस्टेंट के तौर पर काम करने का अवसर मिला।
वह अपने जन्मभूमि को लौट आए, जहां से उनकी यादें जुड़ी हुई थीं। उन्होंने कहा, “यही नियति थी। मेरी भारत वापसी होनी थी और वह हुई।” कुछ ही महीनों बाद उन्हें बीबीसी वर्ल्ड सर्विस के लिए भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल से र्पिोटिंग के लिए उन्हें समाचार संवाददाता बना दिया गया।
टुली ने बताया, “उस समय बीबीसी को खबरों के लिए विश्वनीय स्रोत माना जाता था। लोग सरकारी समाचार प्रसारकों पर भरोसा नहीं करते थे। मैंने पूरे भारत की यात्रा की। मुझे यह देश बहुत प्यारा है और मेरे लिए यही आश्चर्य की बात है कि पत्रकारिता मेरी नियति रही है।”
आपातकाल के दौरान 1975 में तुली ने 40 विदेशी पत्रकारों, जिनमें द गार्जियन और द वॉशिंटन पोस्ट के पत्रकार भी शामिल थे, के साथ भारत छोड़ दिया। वह लंदन वापस लौट गए। जब आपातकाल समाप्त हुआ तो वह ब्यूरो चीफ बनकर भारत लौटे।
तब से वह भारत में ही रह रहे हैं। उन्होंने ‘नो फुल स्टॉप्स इन इंडिया’ और ‘इंडिया इन स्लो मोशन’ नाम से कुछ दिलचस्प किताबें लिखी हैं। उनकी नवीनतम पुस्तक ‘अपकंट्री टेल्स : वन्स अपॉन ए टाइम इन द हार्ट ऑफ इंडिया’ कहानियों का संग्रह है।
भारत सरकार ने 1992 में उन्हें पद्मश्री और 2005 में पद्मभूषण पुरस्कार से सम्मानित किया है। वर्ष 2002 में पिंरस चार्ल्स ने मार्क तुली को बर्किंघम पैलेस में नाइट की उपाधि प्रदान की थी।
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