Daughter’s Day: मैं तो भूल चली बाबुल का देश,पिया का घर प्यारा लगे

हमारे मानव समाज की यह एक बड़ी बिडम्बना है कि बेटियां मां बाप के यहां पैदा भर होती हैं। उनके जीवन का अधिकांश भाग तो मां बाप से अलग होकर ही बीतता है। अब तो फिर भी गनीमत है कि बेटियां 25+ वर्ष मां बाप के यहां रह लेती हैं। पहले तो 15-16 की होते होते विवाह हो जाने पर मां बाप भाई बहन सबका साथ छूट जाता था। बेटियां उस पौधे की भांति होती हैं जिन्हें हम अपने घर में रोपते हैं लेकिन उन्हें स्थाई रूप से लगना कहीं और होता है।

बेटियों के जीवन में कुछ कड़वी अनुभूतियां भी हैं। शादी से पहले जिस घर के हर कोने पर उनका अधिकार होता था, शादी बाद वे उस घर में कभी कुछ दिनों के लिए मेहमानों की तरह आती हैं। और उनकी इस स्थिति को मां बाप भाई बहन सब मान्यता भी दे देते हैं। शादी से पहले वे जिस घर में परी हुआ करती थीं, शादी होते ही वे उस घर में पराई सी हो जाती हैं। परिवार का होते हुए भी उनका परिवार से एक अलग अस्तित्व बन जाता है। जैसे घरती से ही निकले हुए चांद का।

शादी होते ही वही घर उनके लिए एक अस्थायी निवास में बदल जाता है। उनके अधिकार कम हो जाते हैं। शादी के बाद मायके आने पर वह अपनी माँ की अलमारी भी पूछ कर खोलती हैं और उन बातों के लिए भी पूछना पड़ता है जिनको पहले वे साधिकार किया करती थीं।

एक बात ज़रूर कहना चाहूंगा। इसीलिए शायद ऊपर वाला भी उनकी सोच को इस तरह बदल देता है कि उनको यह सब स्वीकार्य लगने लगता है। वे उसे अन्यथा नहीं लेती। कुछ समय बाद उन्ही बेटियों को मां बाप का घर और भाई बहनों की बजाय ससुराल ही ज्यादा अच्छी लगने लगती है और वे उसी को अपना घर मानने लगती हैं। यह बहुत ही सुखद और अनुकूल प्राकृतिक परिवर्तन है जो उनके मनोवैज्ञानिक समायोजन के लिए आवश्यक भी है।

फिर भी कहा जा सकता है कि घर से विदा हो जाने के बावजूद अपनी जिम्म्मेदारियों की दुनियां में व्यस्त हो जाने के बावजूद बेटियों का अपने मां बाप से अटूट लगाव होता है और वे मायके को कभी नहीं भूलतीं। इसके बावज़ूद वे अपनी घर गृहस्थी में ही रम जाती हैं और मायके में बहुत दिन टिक नहीं पातीं क्योंकि उन्हें अपनी जिम्मेदारियां याद आती हैं और अपनी घर गृहस्थी से भी प्यार हो जाता है- तभी किसी गीतकार ने बहुत पहले ही लिख दिया है-मैं तो भूल चली बाबुल का देश,पिया का घर प्यारा लगे।

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