मिल गया कर्ण के कवच और कुंडल का पता, जो बना सकता है आपको सर्वशक्तिमान…

कर्ण महाभारत के सबसे प्रमुख पात्रों में से एक है। कर्ण की वास्तविक माँ कुन्ती थी। कर्ण का जन्म कुन्ती का पाण्डु के साथ विवाह होने से पूर्व हुआ था। कर्ण दुर्योधन का सबसे अच्छा मित्र था और महाभारत के युद्ध में वह अपने भाइयों के विरुद्ध लड़ा।

वह सूर्य पुत्र था। कर्ण को एक आदर्श दानवीर माना जाता है क्योंकि कर्ण ने कभी भी किसी माँगने वाले को दान में कुछ भी देने से कभी भी मना नहीं किया भले ही इसके परिणामस्वरूप उसके अपने ही प्राण संकट में क्यों न पड़ गए हों।

 कवच और कुंडल का पता

कर्ण की छवि आज भी भारतीय जनमानस में एक ऐसे महायोद्धा की है जो जीवनभर प्रतिकूल परिस्थितियों से लड़ता रहा। बहुत से लोगों का यह भी मानना है कि कर्ण को कभी भी वह सब नहीं मिला जिसका वह वास्तविक रूप से अधिकारी था।

तर्कसंगत रूप से कहा जाए तो हस्तिनापुर के सिंहासन का वास्तविक अधिकारी कर्ण ही था क्योंकि वह कुरु राजपरिवार से ही था और युधिष्ठिर और दुर्योधन से ज्येष्ठ था, लेकिन उसकी वास्तविक पहचान उसकी मृत्यु तक अज्ञात ही रही।

कर्ण की छवि द्रौपदी का अपमान किए जाने और अभिमन्यु वध में उसकी नकारात्मक भूमिका के कारण धूमिल भी हुई थी लेकिन कुल मिलाकर कर्ण को एक दानवीर और महान योद्धा माना जाता है।

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अर्जुन के पिता और देवराज इन्द्र को इस बात का ज्ञान होता है कि कर्ण युद्धक्षेत्र में तब तक अपराजेय और अमर रहेगा जब तक उसके पास उसके कवच और कुण्डल रहेंगे, जो जन्म से ही उसके शरीर पर थे।

इसलिए जब कुरुक्षेत्र का युद्ध आसन्न था, तब इन्द्र ने यह ठानी कि वह कवच और कुण्डल के साथ तो कर्ण को युद्धक्षेत्र में नहीं जाने देंगे। उन्होनें ये योजना बनाई की वह मध्याह्न में जब कर्ण सूर्य देव की पूजा कर रहा होता है तब वह एक भिक्षुक बनकर उससे उसके कवच-कुण्डल माँग लेंगें।

सूर्यदेव इन्द्र की इस योजना के प्रति कर्ण को सावधान भी करते हैं, लेकिन वह उन्हें धन्यवाद देकर कहता है कि उस समय यदि कोई उससे उसके प्राण भी माँग ले तो वह मना नहीं करेगा। तब सूर्यदेव कहते है कि यदि वह स्ववचनबद्ध है, तो वह इन्द्र से उनका अमोघास्त्र माँग ले।

तब अपनी योजनानुसार इन्द्रदेव एक भिक्षुक का भेष बनाकर कर्ण से उसका कवच और कुण्डल माँग लेते हैं। चेताए जाने के बाद भी कर्ण मना नहीं करता और हर्षपूर्वक अपना कवच-कुण्डल दान कर देता है।

तब कर्ण की इस दानप्रियता पर प्रसन्न होकर वह उसे कुछ माँग लेने के लिए कहते हैं, लेकिन कर्ण यह कहते हुए कि “दान देने के बाद कुछ माँग लेना दान की गरिमा के विरुद्ध हे”, मना कर देता है।

तब इन्द्र उसे अपना शक्तिशाली अस्त्र वासवी प्रदान करते है जिसका प्रयोग वह केवल एक बार ही कर सकता था। इसके बाद से कर्ण का एक और नाम वैकर्तन, पड़ा, क्योंकि उसने बिना संकुचित हुए अपने शरीर से अपने कवच-कुण्डल काट कर दान दे दिए।

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इन्द्र उस कवच और कुण्डल के साथ स्वर्ग में प्रवेश नहीं कर सके क्योंकि उन्होंने इन्हे झूठ कह कर प्राप्त किया था। तब इन्द्र ने समुद्र किनारे किसी स्थल पर उस कवच और कुण्डल को छिपा दिया।

चंद्र देव ने ये देख लिया और उस कवच और कुण्डल को चुराकर भागने लगे, जिसे समुद्र देव ने देख लिया और उन्हें रोक लिया। तब से सूर्य देव और समुद्र देव दोनों मिलकर उस कवच और कुण्डल की सुरक्षा करते हैं।

लोगों का मानना है की वो स्थान पुरि के निकट कोणार्क में स्थित है।

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