
जैसा की आप जानते हैं आज के समय में जहां कई क्षेत्रों में धर्म और मजहब के नाम पर हिंदू और मुसलमानों के बीच तनाव की खबर देखने और सुनने को मिलती हैं, वहीं बिहार के मुंगेर में एक ऐसे व्यक्ति भी हैं जो जिंदा व्यक्तियों की बात तो छोड़ दीजिए, शवों में भी धर्म और मजहब का अंतर नहीं देखते।
मुंगेर शहर के निमतल्ला मुहल्ले के रहने वाले निसार अहमद बासी एक ऐसे जिंदादिल इंसान हैं जो अपने और अपने परिवारों के गुजर-बसर के लिए घर के पास ही पकौड़े की दुकान चलाते हैं, लेकिन वे लावारिश शवों की इज्जत के साथ अंत्येष्टि करने में कोई कोताही नहीं बरतते।
82 वर्षीय बासी अब तक 2092 शवों का अंतिम संस्कार कर चुके हैं।एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, निसार को लावारिस शवों का अंतिम संस्कार करने की प्रेरणा उन्हें अपने पिता मोहम्मद हाफिज अब्दुल माजिद से मिली।
उन्होंने बताया कि शुरुवात में वे ऐसे ही लावारिस शवों का अंतिम संस्कार कर दिया करते थे, लेकिन साल 1958 में अंजुमन मोफीदुल इस्लाम संस्था की स्थापना कर यह काम उसी के जरिए से करने लगे। जानकारी के लिए बता दें कि संस्था का उद्घाटन उस समय के विधानसभा अध्यक्ष गुलाम सरवर ने किया था।
निसार कहते हैं कि, वे शवों को उनके मजहब और रीति-रिवाज के साथ ही अंतिम संस्कार करने की कोशिश करते हैं। उनका कहना है कि मुस्लिम के शवों को दफनाते हैं जबकि पहचान में आने वाले हिंदुओं के शवों को श्मसान में ले जाकर अंतिम संस्कार करते हैं।
सबसे गौर करने वाली बात है कि, वे शवों के अंतिम संस्कार के पूर्व उसकी तस्वीर लेना नहीं भूलते।गौरतलब है कि, निसार ने औरंगजेब द्वारा बनवाई गई जामा मस्जिद के एक कोने में बैठकखाना बना रखा है, जहां किसी और की नहीं, बल्कि उन लावारिस शवों की ही तस्वीरें लगा रखी हैं जिनका वो अंतिम संस्कार कर चुके हैं।
जानकरी के लिए बता दें कि, एक शव के अंतिम संस्कार में दो से तीन हजार रुपए खर्च आता है। निसार बताते हैं कि इस राशि का इंतजाम कुछ चंदा और आसपास के लोगों द्वारा पूरी कर ली जाती है लेकिन नहीं पूरे होने की स्थिति में खुद को मिलने वाली वृद्धावस्था पेंशन की राशि से करते हैं।”
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‘लावारिस शवों के मसीहा’ के नाम से प्रसिद्ध निसार कहते हैं कि उन्हें इस काम से सुकून मिलता है। किसी की मौत पर आंसू बहाने और उसकी अंतरात्मा की शांति के लिए प्रार्थना करने वाले निसार कहते हैं,
“हमारे इंतकाल के बाद मेरे बच्चे इस काम को करेंगे या नहीं यह तो अल्लाह जाने, मगर उन बच्चों को इस बात का दुख जरूर होगा कि उनके पिता ने उनके लिए सिर्फ इन शवों की ही तस्वीरें छोड गए हैं।