दादा साहब फाल्के: हिंदी सिनेमा के पितामाह का आज जन्मदिन, जानिए कैसे बनी बॉलीवुड की दुनिया…

भारत की संस्कृति, परिधान, भाषा और कला को पूरी दुनिया तक ले जाने वाला सिनेमा आज हर एक के रोज़मर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन चुका है. सिनेमा से हम बहुत कुछ सीखते हैं और बहुत सी पुरानी बातों को याद करते है. फिल्मों के माध्यम से किसी के दर्द की कहानी तो किसी के संघर्ष की कहानी कही जाती है. लोगों के जीवन में पूरी तरह से उतर चुका हिंदी सिनेमा आज केवल अपने देश नहीं बल्कि विदेशों में भी मशहूर हो गया है. लेकिन इसकी शुरुआत की कहानी क्या थी, क्या मेहनत और संघर्ष था इसके आने में , वो दादा साहब फाल्के की कहानी से पता चलता है. दादासाहेब फाल्के को हिंदी सिनेमा का पितामाह कहा जाता है. जिस वक्त भारत में हिंदी सिनेमा की नींव रखी गई थी उस समय ब्रिटिश शासन था और किसी नई चीज़ की शुरुआत करना आज जितना आसान न था.  दादासाहेब फाल्केने के बारे में सोचता है। लेकिन इसको शुरू करने में कितनी मुश्किलें आईं और दादासाहेब ने कितनी मुश्किलों का सामना किया? आज उनके जन्मदिन पर जानते हैं उनकी कहानी…

 

 

दादासाहेब फाल्के का जन्म महाराष्ट्र के नासिक शहर में एक पारंपरिक ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनकी शुरुआती शिक्षा दीक्षा जेजे स्कूल ऑफ आर्ट्स और बड़ौदा के कला भवन में हुई। वह बचपन से ही कला और साहित्य में बहुत रुचि रखते थे इसलिए उन्होंने अपनी आगे की पढ़ाई के लिए कला को ही चुना। स्कूल में पढ़ाई करने के साथ ही उन्होंने फोटोग्राफी, अभिनय, मोल्डिंग, इंग्रेविंग, पेंटिंग, ड्राइंग, आर्किटेक्चर, संगीत आदि की कलाएं सीखीं। फाल्के ने इन सब चीजों को बहुत गंभीरता से लिया और अपने अंदर धारण किया।

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स्कूल से निकलने के बाद फाल्के सारी कलाओं के ज्ञाता तो थे लेकिन उन कलाओं को आजमाने का उन्हें एक मौका चाहिए था। उन्होंने अपने एक दोस्त की मदद से अपनी लक्ष्मी आर्ट प्रिंटिंग प्रेस खोली। जिसमें उन्होंने अपनी कला के प्रयोगों को करना शुरू किया। जब उन्हें लगा कि अब इसे आगे ले जाना चाहिए तो वह साल 1909 में एक नई प्रिंटिंग प्रेस लाने के लिए जर्मनी चले गए। जब वह जर्मनी से लौटकर आए तो उनके साथी से उनकी कुछ अनबन हो गई और उन्हें वह प्रिंटिंग प्रेस छोड़ देनी पड़ गई। उसके बाद फाल्के सब कुछ छोड़ छाड़ कर एक बैरागी से हो गए थे।

 

वर्ष 1911 दादासाहेब फाल्के के लिए एक नई खुशी लेकर आया। इस साल उन्होंने एक फिल्म ‘द लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ देखी। इसके बाद उन्हें इस माध्यम के जादू का पता चल गया। उन्हें समझ में आ गया था कि यह एक ऐसा माध्यम है जिससे लोगों की आंखें खोली जा सकती हैं। यह कहानी जीसस क्राइस्ट की थी। फाल्के ने इसमें हिंदुओं के देवी देवताओं को बिठाया और अलग-अलग कहानियां आंखों के सामने डोलने लगीं। वह समझ गए थे कि अब तो कुछ भी हो जाए लेकिन करना यही है।

 

दादासाहेब धुन के बहुत पक्के थे। उन्होंने जिस वक्त एक मुकम्मल स्वदेसी फिल्म बनाने का फैसला किया उस वक्त भारत में अंग्रेजों का शासन था और फिल्म बनाने में बहुत पूंजी लगती थी। उन्होंने इंग्लैंड से अखबारों, मैगजीनों और वहां के कुछ दोस्तों को अपना साथी बनाया और एक स्वदेशी फिल्म बनाने का प्रयोग शुरु कर दिया। जब उन्होंने यह प्रयोग शुरू किया तो इसमें इनकी पूरी जमा पूंजी स्वाहा हो गई। यहां तक कि खुद दादासाहेब भी कुछ समय के लिए अंधे हो गए। दिन रात काम करने का असर सीधा उनकी आंखों पर पड़ा।

 

दादासाहेब को अपना लक्ष्य बिल्कुल साफ दिख रहा था। वह अपनी फिल्म को बनाने के लिए इंग्लैंड जाकर फिल्म में काम आने वाले कुछ इक्विपमेंट लाना चाहते थे। वह इंग्लैंड जाने का सपना इसलिए भी पाल बैठे थे क्योंकि वह अब तक सीखी अपनी फिल्म बनाने की कला की एक परीक्षा लेना चाहते थे। वह चाहते थे कि अगर वह कल से काम शुरू कर भी देते हैं तो क्या वह इसे पूरा भी कर पाएंगे या नहीं? वह इंग्लैंड के लिए रवाना हुए। इस यात्रा में उन्होंने अपनी जीवन बीमा की पूरी पूंजी भी दांव पर लगा दी।

 

इंग्लैंड पहुंचते ही सबसे पहले दादा साहेबफाल्के ने बाइस्कोप फिल्म पत्रिका की सदस्यता ली। साथ ही वह इस पत्रिका के संपादक मिस्टर केपबर्न से भी मिले। दादासाहेब बहुत ही मिलनसार व्यक्ति थे इसीलिए केपबर्न से उनकी मुलाकात दोस्ती में बदल गई। जब केपबर्न को पता चला कि दादासाहेब का इंग्लैंड आने का मकसद अपनी फिल्म इंडस्ट्री शुरू करना है तो उन्होंने दादासाहेब की मदद के लिए एक बेहतरीन कैमरा और एक प्रिंटिंग मशीन खरीद साथ में कुछ फिल्मिंग में काम आने वाले इक्विपमेंट खरीदवाए। केपबर्न ने फाल्के को वॉल्टन स्टूडियोज के निर्माता सिसल हेपवर्थ से भी मिलवाया। हेपवर्थ ने फाल्के को अपने स्टूडियो का जायजा करवाया और साथ ही फाल्के को यह वादा किया कि वह उनके काम में सहायता करेंगे।

 

दादासाहेब तीन महीने की इंग्लैंड यात्रा के बाद भारत लौटे। वह फिल्म बनाने का जरूरी सामान और अपनी परीक्षा में सफल होकर वापस तो आ गए थे लेकिन उनके पास कोई फिल्म बनाने का पैसा नहीं था। उन्होंने अपनी फिल्म के लिए फाइनेंसर जुटाने के लिए एक शॉर्ट फिल्म ‘मटर के पौधे का विकास’ बनाई। इस फिल्म को बनाने का उनका मकसद सिर्फ इतना था कि वह अपनी फिल्म के लिए फाइनेंसर जुटाना चाहते थे। वह उन्हें विश्वास दिलाना चाहते थे कि वह एक फिल्म बना सकते हैं। जब यह फिल्म उन्होंने बना ली और रिलीज की तो उनका फेंका हुआ पांसा सही पड़ा और उन्हें फाइनेंसर मिलना शुरू हो गए।

 

फिर दादासाहेब ने शुरू की वह फिल्म जिसे आज हम हिंदुस्तान की पहली फीचर फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ के नाम से जानते हैं। दादासाहेब अपनी इस फिल्म के सब कुछ थे। उन्होंने इसका निर्माण किया, निर्देशक भी वही थे, कॉस्ट्यूम डिजाइन, लाइटमैन और कैमरा डिपार्टमेंट भी उन्हीं ने संभाला, वही इसके लेखक भी थे। उनके साथ उनकी बीवी और बच्चे और फिल्मों से अनभिज्ञ लोगों ने काम किया। यह फिल्म बनकर तैयार हुई और 3 मई 1913 को इसे कोरोनेशन सिनेमा बॉम्बे में रिलीज किया गया। यह भारत की पहली फिल्म थी, इसलिए लोगों के लिए कौतूहल का केंद्र भी बनी हुई थी। देश के अलग अलग हिस्सों में इसकी मांग हो रही थी। लेकिन, फाल्के के पास फिल्म की एक ही कॉपी थी इसलिए उन्हें एक ही फिल्म हर जगह लेकर घूमनी पड़ी।

 

दादासाहेब के लिए फिल्म के यंत्र लाना जितना मुश्किल था उससे कहीं ज्यादा मुश्किल था इस फिल्म में लोगों को काम करने के लिए मनाना। फिल्म में हरिश्चंद्र की पत्नी तारामती का किरदार निभाने के लिए कोई भी लड़की तैयार नहीं थी। जब वह अपनी हीरोइन की तलाश में रेड लाइट एरिया में गए तो वहां एक वेश्या को उन्होंने इस किरदार को करने के लिए मनाया। लेकिन चार दिन बाद वह भी अपने एक प्रेमी के साथ फरार हो गई। दादासाहेब की मुश्किलें जब हल होती नहीं दिखाई दीं तो उन्होंने एक नौजवान लड़के अन्ना सालुंके को ही तारामती बना दिया।

 

दादासाहेब को अपनी फिल्म के लिए एक और किरदार की जरूरत थी जो था हरिश्चंद्र और तारामती का बेटा रोहिताश। कहानी के हिसाब से रोहिताश को मरना था। उस समय कोई भी मां नहीं चाहती थी कि उसके बेटे को पर्दे पर मरता हुआ दिखाया जाए। परेशान होकर फाल्के को अपने बेटे बालचंद्र फाल्के को ही रोहिताश के किरदार के लिए तैयार करना पड़ा। शूटिंग के दौरान बालचंद्र अचानक से पत्थर से फिसल कर गिर गया और उसके सिर से खून रिसने लगा। यह देख कर यूनिट के बाकी लोग घबरा गए लेकिन फाल्के के दिमाग में अचानक से विचार आया कि क्यों ना रोहिताश के मरने का सीन ऐसे ही फिल्मा लिया जाए। क्योंकि, उस दृश्य में गहरे भाव थे।

 

 

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