इस मंदिर में मदिरा के भोग को स्वीकारती हैं माता रानी, बड़ा ही रोचक है इतिहास

राजस्थानहमारे देश में मंदिरों और ऐतिहासिक जगहों की भरमार है. मंदिरों की बात करें तो एक बड़ी तादाद में स्थित हैं. मंदिर आस्था के साथ-साथ पर्यटन की नजर से भी बहुत महत्वपूर्ण हैं. ऐसा ही एक मंदिर राजस्थान में मौजूद है, जिसकी महिमा अपरंपार है. अगर कभी राजस्थान जाएं तो इस मंदिर के दर्शन अवश्य करें. इस मंदिर में माता रानी जिस इंसान से प्रसन्न होती हैं, उससे ढाई प्याले मदिरा का भोग स्वीकार करती हैं.

मां दुर्गा का भवाल माता मंदिर बहुत मशहूर है. वहां के लोग भवाल माता को भुवाल अथवा भंवाल भी कहते हैं. यह मंदिर नागौर जिले की रियां तहसील में है. इस मंदिर में देवी के दो रूप काली और ब्रह्माणी विराजमान हैं.

ऐसा कहा जाता है कि ये दोनों रूप स्वत: प्रकट हुए थे. मंदिर में आने वाले भक्त ब्रह्माणी देवी को मिठाई का भोग और काली को मदिरा चढ़ाते हैं.
मंदिर में दर्शन करने वाले भक्तों का कहना है कि यह सिद्ध चमत्कारी मंदिर है, जो यहां आता है निराश नहीं लौटता है.

मदिरा भेंट करने के बारे में कहा जाता है कि इसके लिए पहले से ही प्रसाद बोलना पड़ता है. कार्य सिद्ध होने के बाद फिर उसी मूल्य की भेंट स्वीकार की जाती है. जब भक्त इस मंदिर में मदिरा लेकर आता है तो पुजारी उससे चांदी का प्याला भरता है. इसके बाद वह देवी के होठों तक प्याला लेकर जाता है.

इस समय देवी के मुख की ओर देखना सख्त मना है. माता अपने भक्त से प्रसन्न होकर तुरंत ही वह मदिरा स्वीकार कर लेती हैं. पुजारी उस प्याले को पूरा उल्टा कर यह दिखा देता है कि इसमें एक बूंद तक नहीं बची है. माता उस भक्त से खुश हैं.

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मंदिर का इतिहास

पहले यह इलाका वीरान था. खेजड़ी के एक पेड़ के नीचे देवी की दोनों प्रतिमाएं प्रकट हुई थीं. एक कथा के अनुसार विक्रम सम्वत् 1050 में डाकुओं का एक दल राजा की सेना से घिर गया था. तब उन्होंने देवी का स्मरण किया. देवी की कृपा से राजा की सेना की दृष्टि बदल गई. उन्हें सभी डाकू भेड़-बकरी जैसे दिखने लगे. प्राण रक्षा करने पर डाकुओं ने देवी को प्रसाद चढ़ाना चाहा, परंतु उनके पास मदिरा के अलावा और कुछ नहीं था. इसलिए उन्होंने मदिरा ही देवी को चढ़ा दी.

उनके आश्चर्य का कोई ठिकाना नहीं रहा जब देवी ने पूरा प्याला भरकर मदिरा का भोग स्वीकार कर लिया. देवी ने डाकुओं से ढाई प्याले मदिरा का भोग स्वीकार किया था. देवी की कृपा से उन डाकुओं ने डकैती छोड़ दी. वही परंपरा आज तक जारी है.

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