
फूलने लगे हैं हरसिंगार. सुबह उसके झड़े फूल शरद ऋतु के आने की खबर दे रहे हैं. कहते हैं हरसिंगार बड़ा शर्मीला होता है. रात में चुपके से खिलता है, खिलते ही झरने लगता है. सड़क पर सुबह टहलने के मेरे आनंद को हरसिंगार के लाल डंठलवाले झड़े फूलों की चादर दुगना करती है. बसंत से जो रिश्ता बेला का है, हरसिंगार से वही रिश्ता शरद का है. शरद मानसून की उत्तरकथा है.
बारिश प्रकृति का स्नान पर्व है. प्रकृति और निखर जाती है. कुदरत के कैनवास पर नीला, साफ और ताजा आकाश. खिलती रात. शरद यानी हरसिंगार, कमल और कुमुदिनी के खिलने का मौसम. शरद यानी जागृति, वैभव, उल्लास और आनंद का मौसम. गंदलेपन से मुक्ति का प्रतीक. तुलसीदास भी शरद ऋतु पर मगन हैं ‘वरषा बिगत सरद रितु आई. लछिमन देखहु परम सुहाई.’
हरसिंगार के शर्मीले फूल मुनादी करते हैं कि पितृपक्ष के बाद त्योहारों का सिलसिला शुरू हो जाएगा, क्योंकि शरद उत्सव प्रिय है. इस एक ऋतु में जितने उत्सव होते हैं, पूरे साल नहीं होते. उत्सव किसी समाज की जीवित परंपरा होते हैं. उत्सवों के जरिए हम अतीत से ताकत लेते हैं. जीवन में नए रस का संचार होता है. मुझे लगता है, शरद हमारी जिजीविषा, हमारे संघर्ष और हमारी सामूहिकता का प्रतीक है.
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मौसम का राजा बसंत है, लेकिन लंबे जीवन की कामना करते हमारे पूर्वजों ने सौ बसंत नहीं, सौ शरद मांगे. पूरा वैदिक वाङ्मय सौ शरद की बात करता है. कहा है-जीवेत शरद शतम्. कर्म करते हुए सौ शरद जीवित रहें. जीवन में राग, रस-रंग का प्रतीक बसंत है. पर उसके संघर्ष का प्रतीक शरद ही है. पूरे साल में सिर्फ एक रोज ही शरद पूर्णिमा का चांद सोलह कलाओं का होता है.
कहते हैं, चंद्रमा से उस रोज अमृत बरसता है. इसलिए शरद अमरत्व का प्रतीक है. इसे कोजागरी पूर्णिमा भी कहते हैं. शरद पूर्णिमा से अपना तीन पीढ़ी का रिश्ता है. मेरे पिता और पुत्र दोनों का जन्मदिन इसी रोज है.
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बसंत और शरद दोनों संधि ऋतुएं हैं. एक में सर्दियां आ रही होती हैं, दूसरे में जा रही होती हैं. इसलिए दोनों का चरित्र एक सा है. बसंत शिशिर की शर्वरी से मुक्ति का एहसास है, तो शरद वर्षा के गंदलेपन से मुक्ति का उल्लास. शरद में चौमासे की समाप्ति होती है. साधु-संत इन चौमासे में एक जगह चार महीने रुके रहते हैं. उनकी गतिविधियां ठहर जाती हैं. वे शरद में फिर सक्रिय हो जाती हैं.