कृपा और करुणा

a1प्रायः भक्त प्रभु से कृपा मांगते हैं लेकिन प्रभुराम के बाण से घायल बालि उनसे कृपा नहीं करूणा मांगता है। कृपा के अन्तर्गत प्रभु भौतिक इच्छाओं की पूर्ति करते है, जीवन की अनेक समस्याओं को दूर कर सकते है, लेकिन करुणा से परमपद प्राप्त होता है। उसके बाद कोई भौतिक इच्छा शेष नहीं रह जाती है।
बालि प्रभु राम के बाण से घायल है। यह उसका प्रारब्ध था। बहुत पहले राजा दशरथ ने कहा था कि तुम्हारे अंत समय में मेरा पुत्र तुम्हारे निकट होगा। दशरथ का वचन पूरा हो रहा था। संयोग देखिए कि दशरथ के अंतिम समय में उनके चार पूत्रों में से कोई भी उनके निकट नहीं था। श्री राम और लक्ष्मण वनवास जा चुके थे। भरत और शत्रुध्न अपने मामा के यहां से उस समय तक लौट नहीं सके थे। लेकिन बालि के अंत समय में प्रभु सामने थे। बालि ने हाथ जोड़े। वह भी प्रतापी था। सब जानता था। उसे जो वरदान मिला था, उसका समापन इसी रूप में होना था। उसने प्रभु से कहा कि आपने मुझको आपकी कृपा नहीं चाहिए। कृपा स्वरूप आप हमको स्वस्थ कर सकते हो, राज-पाट बैभव मे इतना देख चुका हूं, कि उसमें अब मेरे लिए कोई आकर्षण नहीं बचा। बालि का साम्राज्य आज के सम्पूर्ण दक्षिण पूर्व एशिया तक विस्तृत था। बताया जाता है कि आज परमनाथ मंदिर में जो अकूत खजाना है वह बालि का है। उसने प्रभु से करूणा मांगी। कहा कि करूणा करें, जिससे मैं इन सांसारिक व आवागमन के बंधनों से मुक्त हो जाऊं। प्रभु की कृपा बहुत लोगों को मिलती है, लेकिन करूणा का प्राप्त होना दुर्लभ होता है। कोटि जन्मों की तपस्या के बाद ही प्रभु की करुणा प्राप्त होती है।
इसी प्रकार जटायू पर प्रभु ने करुणा की। जब सीता जी का हरण करके रावण जा रहा था, तब जटायू ने ही उससे संघर्ष किया था। जहां वह घायल होकर गिरा था, वह स्थान श्रीराम की उस कुटिया से करीब अस्सी मील दूर था। अत्यधिक घायल जटायू प्रभु की प्रतीक्षा करता रहा। अतुल कृष्ण के अनुसार वह विशाल पक्षी नहीं, वरन्, एक बनवासी समुदाय का मुखिया था। उसे गिद्धा गोत्र कहा जाता था। इसी प्रकार वानर, भालू गोत्र भी थे, जिनका अस्तित्व आज भी है। इन सबका समाज में सम्मान था। गोत्र का नामकरण अवश्य वन्य जीवन से संबंधित था।
इन वनवासी समुदायों के महत्व का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि श्री राम ने केवल जटायू को ही बड़भागी कहा है। जटायू के परहित में जीवन त्याग रहा था- प्रभु कहते है।

परहित बस जिनके मनमाहीं।
इन कहु जग दुर्लभ कछु नाहीं।।

इससे प्रभु जहां जटायू का सम्मान करते है, वही समाज को परहित का सन्देश भी देते हैं वह जटायू पर अपनी करूणा करते है। उसे स्वर्ग ले जाने को विमान आता है, प्रभु कहते है-

तात कर्म निज ते गति पाई।
जलभरनयन कहें रधुराई।।

रघुराई के नयनो में अश्रु है। इससे बड़ा करुणा का प्रमाण क्या हो सकता है-
राज-तप और रामराज्य
ऐसा नहीं कि प्राचीन भारत में रामराज्य का एकमात्र उदाहरण श्री राम का शासन है। वस्तुतः यह एक प्रतीक है। इसकी स्थापना कोई भी राजा या शासक अपने तप से कर सकता है। यदि राजा मर्यादा का पालन करता है, तो घीरे-धीरे उसकी प्रजा भी उसी रास्ते पर चलने लगती है। सन्त अतुल कृष्ण इसके उदाहरण देते है, और यह भी कहते है कि आधुनिक प्रजातन्त्र में भी ऐसा संभव है। यदि प्रजा किसी सन्त प्रवृति के व्यक्ति को शासक निर्वाचित करती है, तो वह श्रेष्ठ शासन की स्थापना कर सकता है। ऐसे ही शासकों के समय भारत

दीर्घकाल तक विश्वगुरू के पद पर आसीन रहा।
चौदह वर्षो तक अयोध्या के सिंहासन पर खड़ाऊ रखकर भरत ने भी शासन किया था। प्रतीक रूप में यह भी रामराज्य था। क्योंकि भरत ने निजी सुखों का पूरी तरह परित्याग कर दिया था। वह तपस्वी के रूप में रहकर शासन करते थे। राजा के इस तप का प्रभाव प्रजा पर था। वह भी जप और मर्यादा का पालन करती थी। इसी प्रकार राजा जनक को विदेह कहा गया। इसका तात्पर्य है कि सम्पूर्ण वैभव उपलब्ध होने के बाद भी वह अनाशक्त थे। वह भी तपस्वी की भांति शासन करते थे। इसलिए उनके राज्य में भी रामराज्य था। ऐसे अनेक उदाहरण है। आधुनिक युग में ईमानदार और सन्त के रूप में पारिवारिक मोह माया से मुक्त लोग शासन के लिए निर्वाचित हो, तो भारत आज भी विश्वगुरू बन सकता है।

संस्कृत और साइंस
परतन्त्रता के समय स्थिति अलग थी। अंग्रेजों ने बाबू बनाने की शिक्षा प्रणाली लागू की और हमने उसको स्वीकार कर लिया। इससे देश तथा अपनी सभ्यता संस्कृति के प्रति हीन भावना विकसित हुई थी। फिर भी बड़ी संख्या मंे लोगों ने संघर्ष किया, देश आजाद हुआ। लेकिन स्वतंत्रता के बाद शिक्षा में राष्ट्रीय स्वाभिमान के अनुकूल बदलाव नहीं किया गया। सन्त अतुल कृष्ण कहते है कि संस्कृत और साइंस दोनों को सम्मिलित रूप में प्रोत्साहन दिया जाता तो, भारत आज सच्चे अर्थो में महाशक्ति बन जाता। संस्कृत उपभोगवादी विकास की ओर बढ़ने से रोकती, जिस विकास ने यूरोप, अमेरिका को एक भंवर में पहुंचा दिया है। संस्कृत ग्रन्थों मे ज्ञान विज्ञान का भण्डार है, उसे आधुनिक साइंस से जोड़ा जाता तो कल्याणकारी प्रगति होती।
लेकिन बिडम्बना है कि जो लोग संस्कृत जानते है, उनका साइंस से कोई लेना देना नहीं, जो साइंस जानते है, उन्हें संस्कृत समझ नहीं आती। जबकि अनेक देश संस्कृत ग्रन्थों में समाहित अनेक जानकारियों का पेटेंट करा के आगे बढ़ रहे है। ऐसे में देश में संस्कृत और साइंस को जोड़ते हुए नया पाठ्यक्रम तैयार होना चाहिए। इससे भारत ही नहीं विश्व का कल्याण होगा। (हिफी)

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