‘निजी क्षेत्र में आरक्षण’ सिर्फ सियासी रोटी या समय की जरुरत…

निजी क्षेत्र में आरक्षण की आग कहीं देश को फिर से झुलसा न दे. कहीं दोबारा देश में इसको लेकर खून खराबा न हो. आरक्षण के स्थान पर रोजगार के अवसर पैदा किये जाने चाहिए।  सरकार कम से कम 10-12 लाख युवाओं को नौकरी देने की क्षमता रखती है। ज्ञात हो कि देश में आरक्षण को लेकर बहस छिड़ी हुई है।

'निजी क्षेत्र में आरक्षण'

वहीँ देश में एक तबका इस आरक्षण का लगातार विरोध करता आ रहा है। जातिगत आरक्षण से लगातार देश में जातिबाद को बढ़ावा मिलने के साथ ही टकराव की भावना बन रही है।

सरकारी क्षेत्र में जातिवाद के नाम पर आरक्षण का लगातार विरोध हो रहा है।

वहीँ देश के कुछ नेता चंद वोटों के लिए निजी क्षेत्र में भी ‘आरक्षण नाम’ के जहर को फैलाकर अपनी सत्ता की फसल को सींचना चाहते हैं।

एक ओर राजीनीतिक दल देश से जातिवाद की बीमार को खत्म करने की बात कर रहे हैं, तो दूसरी ओर जातिवाद के नाम पर आरक्षण देकर समाज को बांटने की कोशिश होती है।

निजी क्षेत्र में आरक्षण के लिए देश में जारी सियासत के बीच बिहार देश का पहला राज्य बन था, जहां निजी कम्पनियों को आरक्षण के दायरे में ला दिया गया।

यानी बिहार में अब निजी कंपनियों को आरक्षण के नियमों का पालन करना होता है।

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राज्य सरकार जिन कर्मचारियों को आउटसोर्स करती है, उन कर्मचारियों के चयन में आरक्षण के नियम लागू होंगे और कंपनियों को इसका पालन करना होता है।

निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग की वैधता पर विचार करने से पहले यह बता देना ज़रूरी है कि आरक्षण के मसले पर मेरिट, सामान्य श्रेणी या अगड़ों के साथ अन्याय तथा निजी क्षेत्र की स्वायत्तता में बेमानी दख़ल जैसे तर्कों पर फ़ालतू चर्चा का अब कोई मतलब नहीं है।

संसद से सड़क और अदालतों तक दशकों तक ये चर्चाएं हुई हैं तथा आरक्षण के पक्ष में ठोस वैधानिक व्यवस्थाएं लागू हैं। आरक्षण कोई दया या दान नहीं है, यह कोई ग़रीबी मिटाओ योजना नहीं है, यह भी समझाया जा चुका है।

भारतीय संविधान के जिस हिस्से में आरक्षण-संबंधी प्रावधान हैं उनमें ‘प्रतिनिधित्व’ शब्द का प्रयोग हुआ है। इसका सीधा मतलब है कि सार्वजनिक जीवन के हर क्षेत्र में देश की वंचित आबादी का समुचित प्रतिनिधित्व होना चाहिए।

यह भी याद रखा जाना चाहिए कि जिन तबकों के लिए संवैधानिक आरक्षण की व्यवस्था है, आबादी में उनका हिस्सा तीन-चौथाई के क़रीब है। ये सब इसलिए कहना पड़ रहा है कि जब भी वंचितों के अधिकारों के बारे में बहस होती है, आरक्षण-विरोधी घिसे-पिटे तर्कों को बार-बार दोहराते हैं।

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हमारे देश में वंचित समुदायों के लिए विशेष अवसर प्रदान करने की परंपरा सौ साल से अधिक पुरानी है, जब पुणे, मैसूर, त्रावणकोर आदि के रजवाड़ों ने शैक्षणिक संस्थाओं में पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण लागू किया था।

निजी क्षेत्र में आरक्षण की मौज़ूदा चर्चा पिछले साल फ़रवरी में तब शुरू हुई जब राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने इसकी अनुशंसा केंद्र सरकार से की। आयोग का कहना था कि सरकारी क्षेत्र में नौकरियां लगातार घट रही हैं, ऐसे में आरक्षण का विस्तार निजी क्षेत्र में करना होगा।

जो लोग यह शोर मचाते रहते हैं कि आरक्षण के कारण उन्हें अवसर नहीं मिल रहा है, उन्हें यह जानना चाहिए कि एक आकलन के मुताबिक शिक्षित लोगों के लिए देश में उपलब्ध कुल नौकरियों में मात्र 0.69 फ़ीसदी ही आरक्षित हैं यानी एक फ़ीसदी से भी कम।

 

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