बजट: आखिर क्या है सेस टैक्स? जिसके बढ़ते ही पड़ेगी ‘मार’

नई दिल्ली। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने देश का आम बजट पेश कर दिया है। लोकसभा में मोदी सरकार का लगातार पांचवां बजट पेश हुआ बजट ‘आम’ नहीं बल्कि ‘खास’ रहा।

केंद्र सरकार ने इनकम टैक्स छूट की सीमा में कोई बदलाव नहीं किया है। सरकार के इस कदम से नौकरीपेशा लोगों को बड़ा झटका लगा है।

सेस

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने संसद में अपने पांचवें बजट में यह घोषणा की। अभी ढाई लाख रुपए तक की सालाना आय टैक्स मुक्त है, जबकि ढाई से पांच लाख रुपए की आय पर पांच फीसदी की दर से टैक्स लगता है।

इसके अलावा, इस वर्ग में 2,500 रुपए की अतिरिक्त छूट भी है, जिससे तीन लाख रुपए तक की आय पर कोई टैक्स नहीं लगता है। वहीं, 10 लाख रुपये से ज्यादा की सालाना आमदनी पर अभी तक 30 फीसदी के हिसाब से टैक्स लगता रहा है।

इतना ही नहीं सरकार ने सेस को 3 फीसदी से 4 फीसदी कर दिया है। इससे मिडिल क्लास पर मार पड़ेगी।

जानिए क्या है सेस?

राजस्व जुटाने के लिए सरकारों के पास जो विभिन्न साधन उपलब्ध हैं, उनमें कर और उपकर प्रमुख हैं। उपकर को अंग्रेजी में सेस कहा जाता है।

उदाहरण के तौर पर अभी 14 फीसदी के सेवा कर पर आधा फीसदी स्वच्छ भारत सेस नरेंद्र मोदी सरकार ने 2015 में लगाया था। इसके बाद 2016-17 का बजट पेश करते हुए केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने यह घोषणा की कि अब सेवा कर पर आधा फीसदी किसान कल्याण सेस लगाया जाएगा।

इसका मतलब यह हुआ कि आम लोग जो 15 फीसदी सेवा कर देते हैं, उनमें एक फीसदी सेस होता है। इनमें आधा फीसदी का इस्तेमाल खास तौर पर देश को साफ-सुथरा बनाने में होना है और आधा फीसदी का इस्तेमाल किसानों की बदहाली को दूर करने में।

लेकिन क्या सेस का इस्तेमाल उन्हीं लक्ष्यों को पूरा करने के लिए हो रहा है जिनके लिए वे लगाए जा रहे हैं? इस सवाल का जवाब जानने से पहले यह समझते हैं कि आखिर केंद्र सरकार क्यों बार-बार सेस लगाती है।

सेस से मिली रकम सिर्फ केंद्र की

भारतीय संविधान के अनुच्छेद-280 के जरिए यह व्यवस्था दी गई है कि एक वित्त आयोग बनेगा जो करों के जरिए केंद्र सरकार को मिलने वाले राजस्व में से राज्यों को हिस्सा देने का फाॅर्मूला सुझाएगा। इसका मतलब यह हुआ कि करों के जरिए जो राजस्व केंद्र सरकार को मिलता है, उसमें से केंद्र को राज्यों को हिस्सा देना पड़ता है।

जबकि सेस के बारे में यह व्यवस्था है कि इससे मिलने वाले राजस्व का बंटवारा केंद्र को राज्यों के साथ नहीं करना पड़ता। यानी सेस के जरिए जो रकम मिलती है, वह पूरी तरह से केंद्र सरकार के हाथ में ही रहती है। जानकारों के मुताबिक यह व्यवस्था इसलिए है ताकि जिस खास लक्ष्य से सेस लगाया जाए, उसे केंद्र सरकार एक तय समयसीमा में पूरा कर सके और जब एक बार यह लक्ष्य हासिल कर लिया जाए तो सेस को खत्म कर दिया जाए।

अब सवाल उठता है कि क्या सेस का इस्तेमाल सही ढंग से उन्हीं कामों में हो रहा है जिनके लिए सेस लगाया जा रहा है और आम लोगों पर अतिरिक्त बोझ लादा जा रहा है।

बजट दस्तावेजों के मुताबिक केंद्र सरकार को उम्मीद है कि 2016-17 में सेस से प्राप्त होने वाला राजस्व पिछले वित्त वर्ष के मुकाबले 22 फीसदी बढ़कर 1.65 लाख करोड़ रुपये हो जाएगा। 2014-15 में सेस से केंद्र सरकार को तकरीबन 83,000 करोड़ रुपये का राजस्व हासिल होता था। इसका मतलब यह हुआ कि महज दो साल में सेस से मिलने वाला राजस्व तकरीबन दोगुना हो गया।

याद रहे कि यह रकम केंद्र सरकार को राज्यों के साथ नहीं बांटनी होती है। यह भी याद रहना चाहिए कि ये वही दो साल हैं जब केंद्र में नरेंद्र मोदी की अगुवाई में सरकार बनी और स्वच्छ भारत सेस और किसान कल्याण सेस लगाए गए और कोयले पर प्रति टन 100 रुपये की दर से लगने वाला स्वच्छ पर्यावरण सेस बढ़कर 400 रुपये प्रति टन हो गया।

पैसे का एक बड़ा हिस्सा खर्च ही नहीं हुआ

कुछ समय पहले भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक यानी सीएजी की सेस पर एक रिपोर्ट आई थी। इसमें बताया कि सेस के जरिए सरकार को जो राजस्व हासिल होता है, उसका 41 फीसदी इस्तेमाल नहीं हुआ। सीएजी ने अनुमान लगाया था कि सेस के जरिए वसूल गए तकरीबन 1.4 लाख करोड़ रुपये केंद्र सरकार के पास पड़े हुए हैं। इसका मतलब यह हुआ कि सरकार जिन खास लक्ष्यों को हासिल करने के लिए सेस लगा रही है, उन लक्ष्यों को पूरा करने में जमा किया गया पैसा खर्च ही नहीं हो रहा और आम लोग लगातार सेस देने को मजबूर हैं।

1996-97 में शोध एवं विकास के लिए सेस लगाया गया था। तब से लेकर 2014-15 तक इस सेस के जरिए सरकार को तकरीबन 5,700 करोड़ रुपये हासिल हुए हैं। लेकिन खुद सरकारी दस्तावेज बताते हैं कि इनमें से सिर्फ 21 फीसदी यानी 1,228 करोड़ रुपये का ही इस्तेमाल शोध एवं विकास कार्यों में हो पाया।

यही कहानी दूसरे उपकरों की भी है। माध्यमिक और उच्च शिक्षा के लिए जो सेस सरकार 2006 से वसूल रही है, उसमें से 64,288 करोड़ रुपये केंद्र सरकार के पास पड़े हुए हैं। शहरों में इस्तेमाल किए जाने वाले इंटरनेट और मोबाइल सेवाओं पर एक सेस लगाया जाता है।

इसका नाम है यूनिवर्सल सर्विस ऑबलिगेशन फंड यानी यूएसओएफ। इसे 2002 में लगाया गया था। पांच फीसदी के इस सेस का मकसद यह था कि इसके जरिए ग्रामीण भारत में मोबाइल और इंटरनेट सेवाओं के लिए बुनियादी ढांचे को दुरुस्त किया जाएगा। हाल ही में सरकार की ओर से दी गई एक जानकारी के मुताबिक जब से यह सेस लगाया गया है तब से इसके जरिए 76,403 करोड़ रुपये का राजस्व हासिल हुआ है। लेकिन जिस मकसद से यह सेस लगाया गया था, उसमें सिर्फ 31,147 करोड़ रुपये का ही इस्तेमाल हो पाया है।

नाम कुछ काम कुछ?

इन्हीं स्थितियों को देखते हुए सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में यह टिप्पणी की थी कि संभव है कि सेस के जरिए प्राप्त होने वाले राजस्व का इस्तेमाल सरकार दूसरे कामों में कर रही हो। हालांकि, सीएजी ने भले ही पुख्ता तौर पर इस बारे में नहीं बताया हो लेकिन सरकार को यह साफ करना चाहिए कि आखिर सेस से प्राप्त होने वाले राजस्व का इस्तेमाल कहां हो रहा है और कितने समय में तय लक्ष्यों को हासिल करके संबंधित सेस को समाप्त किया जाएगा। अगर लंबे समय तक ये सेस बरकरार रहते हैं तो यह सेस की मूल अवधारणा के ही खिलाफ होगा।

यहां एक और बात का जिक्र जरूरी है। कोयले के खनन पर प्रति टन 400 रुपये की दर से लगने वाले लगने वाले स्वच्छ पर्यावरण सेस का इस्तेमाल दूसरे मद में करने की योजना केंद्र सरकार सार्वजनिक कर चुकी है। खुद केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली लगातार कह रहे हैं कि प्रस्तावित वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी के लागू होने से राज्यों को जो राजस्व का नुकसान होगा, उसे पूरा करने के लिए स्वच्छ पर्यावरण सेस के जरिए प्राप्त होने वाले पैसे के एक हिस्से का इस्तेमाल किया जाएगा। इसका मतलब यह हुआ कि जिस आशंका की ओर इशारा सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में किया था, अब सरकार उसी रास्ते पर जाती दिख रही है।

साभार: सत्याग्रह

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