यूएस-भारत के रिश्तों में तकरार बढ़ती दिख रही है, क्या इस दोस्ती का अंत हो जायेगा?

यूएस के विदेश मंत्री माइक पोम्पियो 29 जून को जी-20 बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की मुलाकात से पहले बुधवार को भारत दौरे पर आए हैं.

भारत के सामने चुनौती होगी कि वह माइक पोम्पियो को समझा सकें कि ट्रंप प्रशासन की सख्त व्यापार नीतियां दोनों देशों की रणनीतिक साझेदारी के लिए भू-राजनीतिक चुनौतियां पेश कर सकती हैं.

मोदी ने ऐसे वक्त में दूसरा कार्यकाल संभाला है जब ट्रंप प्रशासन की एकतरफा नीतियां नियंत्रण से बाहर निकल चुकी हैं. अगले साल यूएस में राष्ट्रपति चुनाव होने हैं, ऐसे में ट्रंप का चुनावी कैंपेन मोदी के कैंपेन से भी ज्यादा राष्ट्रवादी और आक्रामक होने वाला है.

ऐसी परिस्थितियों में भारत-यूएस के रिश्ते एक मुश्किल दोराहे पर आकर खड़े हो गए हैं. कई सकारात्मक चीजों के बावजूद, भारत-यूएस के रिश्तों के भविष्य में कई चुनौतियां पेश होने वाली हैं.

सकारात्मक पक्ष की बात करें तो पिछले दो दशकों में भारत-यूएस के रिश्तों में कई मोर्चों पर साझेदारी मजबूत हुई है. बिल क्लिंटन से लेकर डोनाल्ड ट्रंप ने सुनिश्चित करने की कोशिश की है कि भारत और यूएस के रिश्ते सही ट्रैक पर रहें.

राष्ट्रपति बनने के बाद से ही ट्रंप ने पीएम मोदी से करीबी बढ़ानी शुरू कर दी थी और मोदी ने भी उनके साथ रिश्ते प्रगाढ़ करने में बिल्कुल वक्त नहीं लगाया. ओबामा प्रशासन के भारत को प्रमुख रक्षा साझेदार बनाने से एक कदम आगे बढ़ते हुए ट्रंप प्रशासन ने रक्षा संबंधित तकनीक देने के लिए हामी भरी.

अमेरिकी कूटनीतिक शब्दकोष में एशिया-पैसिफिक की जगह अब इंडो-पैसिफिक ने ली है. ट्रंप प्रशासन भारत-प्रशांत क्षेत्र में भारत को सबसे प्रमुख सहयोगी कहता रहा है, यहां तक कि यूएस प्रशांत कमांड का नाम भी यूएस ने भारत-प्रशांत कमांड कर दिया.

 

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वॉशिंगटन को यह एहसास है कि भारत एशिया में यूएस की स्थिति मजबूत करने में मददगार साबित हो सकता है जहां चीन पहले ही अपनी सैन्य ताकत का प्रदर्शन करना शुरू कर चुका है. दूसरी तरफ, चीन के वैश्विक वर्चस्व बढ़ने के साथ भारत के पास भी सीमित विकल्प ही मौजूद हैं.

भारत की वैश्विक व्यवस्था में उभरने की महत्वकांक्षा के प्रति चीन की उदासीनता उसे महत्वपूर्ण सहयोगी बनने से रोक देती है. ऐसे में भारत यूएस के साथ दोस्ती बढ़ाकर अपनी रणनीतिक चुनौतियों से निपटना चाहता है.

मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में यूएस के साथ तमाम रक्षा संबंधी समझौते हुए और दूसरी बार भी मोदी सरकार अमेरिका से वही सहयोग चाहती है.

चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के महत्वाकांक्षी भूराजनीतिक परियोजना बेल्ड ऐंड रोड (बीआरआई) से चिंतित अमेरिका को भारत में अपना सहयोगी दिख रहा है.

भारत और यूएस चीन के समुद्री विस्तार को रोकने के लिए एकजुट दिखाई पड़ते हैं जो भारत-प्रशांत क्षेत्र में व्यापारिक मार्ग के लिए एक खतरा बन चुका है. बीजिंग दक्षिण एशियाई देशों और भारत-प्रशांत क्षेत्र में अपना भू-राजनीतिक प्रभाव बढ़ाने के लिए साम-दाम-दंड की नीति अपना रहा है.

इस साल के अंत में भारत और यूएस द्विपक्षीय सैन्य अभ्यास करेंगे. पिछले महीने आईएनएस कोलकाता और आईएनएस शक्ति ने यूएस, फिलीपींस और जापान के साथ मिलकर संयुक्त अभ्यास में हिस्सा लिया था. भारत के इस अभ्यास को दक्षिण चीन सागर में विवादित हिस्सों पर फिलीपींस के दावे को समर्थन देने के नजरिए से देखा गया था.

भारत, यूएस, ऑस्ट्रेलिया और जापान की ये साझेदारी नियमित अंतराल पर दिखती रहती है. ट्रंप प्रशासन अपनी पूर्ववर्ती सरकारों के मुकाबले आतंकवाद के मुद्दे पर भी भारत के साथ ज्यादा मजबूती से खड़ा हुआ है. संयुक्त राष्ट्र में जैश-ए-मोहम्मद आतंकी मसूद अजहर को वैश्विक आतंकी घोषित किया जाना अमेरिकी समर्थन का ही उदाहरण है.

ट्रंप प्रशासन ने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) व फाइनेंशियल ऐक्शन टास्क फोर्स (FATF) के जरिए भी पाकिस्तान पर आतंकी संगठनों की फंडिंग रोकने के लिए पूरा दबाव बनाया. हाल ही में व्हाइट हाउस ने यह भी साफ किया कि क्षेत्रीय शांति की धुरी पाकिस्तान में है और उसे आतंकी संगठनों को खत्म करने के लिए सख्त कदम उठाने होंगे.

दूसरे शब्दों में, अमेरिका का पाकिस्तान पर जो नजरिया है, वह भारत के दिल के बिल्कुल करीब है. मोदी सरकार के लिए यह एक उपलब्धि है.

इन सारी वजहों से मोदी के लिए यूएस से नजदीकी बढ़ाना आसान है. दूसरी बार बहुमत से सत्ता में आने के बाद पीएम मोदी यूएस के साथ मजबूत रिश्तों के साथ चीन के वर्चस्व को चुनौती देने की कोशिश करेंगे.

हालांकि, इन सबका ये मतलब नहीं है कि यूएस-भारत के रिश्तों में कोई मनमुटाव, मतभेद या संघर्ष नहीं है. भारत-यूएस के रिश्तों में सकारात्मक मोड़ के बावजूद यूएस भारत पर कई मुद्दों पर दबाव बना रहा है.

भारत बिना मजबूत अर्थव्यवस्था के विश्व में अपनी स्थिति मजबूत नहीं कर सकता है लेकिन अमेरिका वैश्विक अर्थव्यवस्था के सामने चुनौती पेश कर रहा है.

यूएस-चीन के बीच व्यापार और तकनीक की लड़ाई तेज हो रही है जिससे वैश्विक अर्थव्यवस्था भी प्रभावित हो रही है. पिछले कुछ सालों में अमेरिका की विदेश नीति में पारंपरिक सहयोगियों को छेड़ना परंपरा बन गई है.

ट्रंप प्रशासन का बिना सोचे समझे नाटो की रणनीतिक अहमियत को कम करने का फैसला, यूरोपीय यूनियन के सामान पर टैरिफ लागू करना, ईरान परमाणु समझौते से एकतरफा बाहर होना और ईरान पर प्रतिबंध थोपना…अमेरिका फर्स्ट नीति के ऐसे तमाम उदाहरण मौजूद हैं. वॉशिंगटन की आर्थिक शक्ति प्रदर्शन की आंच अब भारत पर भी पड़ने लगी है.

नई दिल्ली ने ईरान और वेनेजुएला से कई छूटों पर मिलने वाले तेल का आयात करना बंद कर दिया है और अमेरिकी दबाव की वजह से भारत के आयात बिल में भारी-भरकम बढ़ोतरी हो गई है. भारत की ऊर्जा जरूरतों की मांग है कि मध्य-पूर्व में स्थिरता कायम रहे और नई दिल्ली इस क्षेत्र में अपनी स्थिति भी कमजोर नहीं करना चाहता है.

लेकिन यूएस की तलवार भारत-ईरान की रणनीतिक साझेदारी पर भी लटक रही है जिससे भारत की विदेश नीति के लिए गंभीर चुनौती पैदा हो गई है. पाकिस्तान के भू-भाग पर आतंकवाद के मुद्दे पर ईरान और भारत की चिंता एक है जो ईरान को भारत का प्रमुख भू-राजनीतिक साझेदार बनाता है.

ईरान के साथ खराब रिश्तों की वजह से भारत की पश्चिम एशिया में प्रभाव और मौजूदगी बढ़ाने की कोशिशों को भी झटका लग सकता है. फिलहाल, यूएस ने ईरान-भारत की साझेदारी वाले चाबहार बंदरगाह को प्रतिबंधों से मुक्त रखा है लेकिन भारत भविष्य में अमेरिका के इरादों को लेकर संशय में ही है.

चाबहार बंदरगाह से भारत की पश्चिम एशिया में पहुंच के लिए पाकिस्तान पर निर्भरता खत्म होती है. अगर चाबहार बंदरगाह को मिलने वाली प्राथमिकता खत्म कर दी जाती है तो यह ट्रंप की एकतरफा और तत्कालिक नीति की दूरदर्शी रणनीतिक सोच पर जीत का बेहतरीन उदाहरण बन जाएगा.

यूएस भारत की रूस निर्मित S-400 डिफेंस सिस्टम को खरीदने के लिए आलोचना कर रहा है. वॉशिंगटन का तर्क है कि अगर भारत रूसी डिफेंस सिस्टम खरीदता है तो यह अमेरिका के CAATSA (अमेरिका एडवर्सरीज सैंक्शन ऐक्ट) का उल्लंघन माना जाएगा. S-400 की खरीद को लेकर अमेरिका के तुर्की के साथ भी संबंध तनावपूर्ण हुए हैं.

भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती ये है कि अगर अमेरिकी तानाशाही को खारिज करता है तो उसे आर्थिक प्रतिबंधों का सामना करना पड़ सकता है.

इसके अलावा वॉशिंगटन के साथ आधुनिक तकनीक रक्षा सहयोग भी बाधित हो सकता है. अगर भारत S-400 नहीं खरीदता है तो रूस के साथ पारंपरिक संबंधों को नुकसान पहुंचेगा.

व्यापारिक साझेदारी भी भारत-यूएस के बीच तनाव की एक वजह है. भारत को GSP कार्यक्रम के तहत अभी तक अमेरिका से व्यापार में कुछ विशेषाधिकार हासिल थे लेकिन ट्रंप प्रशासन इसे खत्म करने की तरफ आगे बढ़ रहा है. जीएसपी के तहत अमेरिकी बाजार में भारत समेत कुछ चुनिंदा देशों को निर्यात पर ड्यूटी से सीमित छूट हासिल थी.

दूसरी तरफ, वॉशिंगटन भारत से ई-कॉमर्स को लेकर अमेरिकी कंपनियों के लिए नियमों में ढील चाहता है. हालांकि, कई दौर की वार्ताएं इस मुद्दे को सुलझाने में असफल रही हैं.

डिप्लोमैट के विश्लेषक विनय कौरा के मुताबिक, अभी तक भारत-यूएस के रणनीतिक रिश्तों की मजबूती व्यापारिक झटकों को सहने में कामयाब रही है लेकिन अमेरिका की एकतरफा कार्रवाई की वजह से मोदी सरकार की ईरान और रूस के साथ रिश्ते संवारने की चुनौतियां बढ़ जाएंगी. भारत-यूएस के रिश्तों में ईरान और रूस की भूमिका के मुद्दे को तुरंत सुलझाने की जरूरत है.

अमेरिका का कट्टर राष्ट्रवाद दोनों देशों के रिश्तों में दरार पैदा कर सकता है. अगर चीन की आर्थिक और रणनीतिक चुनौतियों से यूएस वाकई निपटना चाहता है तो उसे भारत से अपनी नई-नई शर्तें मनवाना और दबाव बनाना बंद करना होगा.

इससे भारतीय कूटनीतिक खेमे में अमेरिका के खिलाफ माहौल बन सकता है और रणनीतिक स्वायत्तता की मांग भी उठ सकती है और अमेरिका कभी भी ऐसा नहीं चाहेगा.

 

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