
कांग्रेस के किसी नेता या कार्यकर्ता से बात कीजिए, वो सभी राहुल को ही बतौर अध्यक्ष देखना चाहते हैं. वो राहुल को ईमानदार, दिल का साफ और सरल व्यक्तित्व वाला भी मानते हैं, लेकिन वही नेता और कार्यकर्ता राहुल के अंदाज़-ए-सियासत पर सवाल भी उठाते हैं.
पर दिक्कत ये है कि राहुल से बोले कौन? नाम न छापने की शर्त पर तमाम कार्यकर्ताओं और नेताओं से बातचीत करने पर कई बातें सामने आईं, जिनकी पड़ताल करने पर पता चलता है कि वो काफी हद तक सही हैं.
लेकिन राहुल के सलाहकार उसको सुधारने के बजाय सामान्य मानकर उस पर शायद ध्यान देना जरूरी नहीं समझते हैं.
विदेश दौरा गुपचुप क्यों?
एक बार फिर राहुल चुनावी हार के बाद विदेश में हैं. कुछ दिनों के लिए विदेश जाना गुनाह नहीं है, लेकिन उसको गुप्त क्यों रखा गया. कब गए, कब आएंगे, कहां गए?
ये वो सवाल हैं जिनसे पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं को रोज रूबरू होना पड़ता है, लेकिन उनके पास कोई जवाब नहीं होता.
बीच में पार्टी नेताओं के समझाने के बाद राहुल ने विदेश जाने पर ट्वीट करना शुरू किया था, जिसको लेकर सभी बहुत पॉजिटिव थे, लेकिन चुनाव बाद फिर क्यों गुपचुप विदेश दौरा.
त्योहार में नदारद राहुल
राहुल ने जब खुद को शिवभक्त, जनेऊधारी हिंदू ब्राह्मण बताया तो फिर उनको रोजमर्रा में भी ऐसा दिखना चाहिए. रोजमर्रा के मायने ये कि दीपावली मनाते राहुल कभी नहीं देखे गए.
हालांकि, राहुल दीपावली मनाते हैं और आपसी बातचीत में इसको व्यक्तिगत त्योहार बताते हैं. इतने सालों में राहुल तमाम कोशिशों के बाद महज एक बार होली के दिन कांग्रेस मुख्यालय में आए.
बाकी होली में राहुल नदारद दिखे. याद करिए इंदिरा गांधी की होली की तस्वीरें आज भी पुराने कांग्रेसी सहेजकर रखते हैं.
वहीं रक्षा बंधन पर राहुल और प्रियंका की तस्वीर देखने को नेता कार्यकर्ता तरस गए, लेकिन बात वही कि राहुल इन चीजों को पब्लिक के सामने नहीं लाना चाहते, इसको व्यक्तिगत मानते हैं.
वामपंथी विचारधारा के सलाहकार!
चुनावी मौसम में राहुल के मंदिर दौरों की बाढ़ आ जाती है, बाकी वक्त में वो रफ्तार काफी धीमी हो जाती है. हां, उनकी कैलाश मानसरोवर यात्रा और केदारनाथ यात्रा इसका जरूर अपवाद है.
सवाल ये है कि आखिर विरोधियों के चुनावी हिंदू होने के आरोप क्यों जनता मान लेती है, क्यों कांग्रेसी जनता को जवाब नहीं दे पाते.
इसका जवाब किसी और को नहीं राहुल को ही खोजना होगा. इसलिए राहुल के गैर-राजनैतिक सलाहकारों पर वामपंथी विचारधारा के करीब होने की बात सामने आती है.
हार के बाद इंदिरा गांधी-राजीव गांधी
कांग्रेस दफ्तर में सुरक्षा के चलते परेशानी आती है. मसलन, बाकी नेताओं का, स्टाफ और मीडिया का आना जाना मुश्किल हो जाता है.
ऐसे में राहुल बिना समय लिए आने वाले कार्यकर्ताओं से घर पर ही सही, क्यों नहीं मिलते, जिससे जमीनी हकीकत का पता चले.
बीच में अध्यक्ष बनने के बाद हफ्ते में दिल्ली में रहने पर दो दिन ये सिलसिला शुरू भी हुआ, तो वो भी उनका स्टाफ पहले से तय करने लगा कि कौन-कौन कार्यकर्ता मिलेगा. राहुल को याद होना चाहिए कि हार के बाद इंदिरा और उसके बाद राजीव ने अपने घर के दरवाजे खोल दिए थे.
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यूथ कांग्रेस और NSUI में बंद हो चुनाव
कांग्रेस में बड़े से छोटे नेता कार्यकर्ता से बात करने पर सबसे बड़ी बात सामने आती है कि यूथ कांग्रेस और एनएसयूआई में चुनाव कराने से कांग्रेस को युवा वर्ग में खासा नुकसान हुआ. ये संगठन बैठ गए.
संगठन के इन चुनावों में पैसा, आपसी लड़ाई खूब चला. पैसे वाले नेता अपने चहेतों को चुनाव जिताने लगे. जीतने वाला भी इस अहम के साथ रहता कि वो जीतकर आया है, भला कौन हटाएगा.
इसलिए यूथ कांग्रेस-एनएसयूआई के कार्यक्रमों और धरने-प्रदर्शनों में भीड़ खासी घट गई. हालांकि, इसके कुछ अपवाद हैं जो राहुल के प्रयोग को सफल साबित करते दिखे, लेकिन इसका प्रतिशत थोड़ा बहुत नहीं खासा कम है.
अब इतने लंबे अरसे के बाद पार्टी के सबसे वरिष्ठ नेता मोतीलाल वोरा ने आजतक से कहा कि पार्टी को यूथ कांग्रेस और एनएसयूआई में चुनाव बंद करने होंगे. अब हमलोग इस बारे में राहुल जी से कहेंगे.
सही-गलत खबरों का चलना
राहुल से जुड़ी सही-गलत खबरें मीडिया, सोशल मीडिया पर चलती हैं. कई मामले सही तो कई गलत होते हैं. राहुल की किससे राजनैतिक मुलाकात होनी है या हुई है, तमाम खबरों की हकीकत बताना उनके दफ्तर की मर्जी है, वो बताए या ना बताए उसकी मर्जी.
दफ्तर में कोई राजनैतिक नियुक्ति नहीं है, जो राहुल से जुड़ी खबरों पर सही जानकारी दे. इसके चलते राहुल को लेकर कई गलत खबरें भी चलती रहती हैं, लेकिन नेता-कार्यकर्ता ही सच नहीं जानते. कई मामलों पर तो मीडिया विभाग भी हाथ खड़े कर देता है. उदाहरण के तौर पर, राहुल का ताजा विदेश दौरा.
पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं से बातचीत में बैक टू बेसिक्स की बातें खुलकर सामने आती हैं, लेकिन सवाल वही कि राहुल से कहने की हिम्मत कौन करेगा और करेगा तो क्या राहुल वामपंथी विचारधारा के करीब दिखने वाले अपने गैर-राजनैतिक सहयोगियों के प्रभाव से निकलकर खुद को बदलेंगे.