यूपी में BJP के नए अध्यक्ष के नाम पर उठापटक शुरू ,इन नामों पर है बाज़ार गर्म ! देखें …

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के उत्तर प्रदेश अध्यक्ष डॉ. महेंद्रनाथ पांडेय अब केंद्र सरकार में शामिल हैं. उनकी जगह पार्टी में नए अध्यक्ष को लेकर चर्चाएं शुरू हो गई हैं.

एक व्यक्ति, एक पद के सिद्धांत के चलते पांडेय ज्यादा दिन तक अध्यक्ष पद पर नहीं रहेंगे. नए अध्यक्ष को खोजने के लिए भाजपा  को सारे आंकड़ों में फिट बैठने वाला व्यक्ति ही चाहिए.

माना जाता है कि उप्र की बड़ी जीत में महेंद्रनाथ पांडेय का विशेष योगदान रहा है. वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा ने केशव प्रसाद मौर्य को प्रदेश अध्यक्ष बनाया था और भाजपा का यह प्रयोग बहुत सफल हुआ था.

पर, केशव प्रसाद के उपमुख्यमंत्री बनते ही मोदी सरकार में राज्यमंत्री रहे डॉ. पांडेय को भाजपा की कमान सौंपी गई थी. 31 अगस्त, 2017 को अध्यक्ष पद पर आसीन हुए डॉ पांडेय को ब्राह्मण समीकरण को मजबूत करने का अवसर दिया गया था.

फिलहाल प्रदेश में भाजपा का नया अध्यक्ष कौन होगा यह अभी कहना मुश्किल है, लेकिन सियासी गलियारों में कई नामों की लेकर चर्चाओं का बाज़ार गर्म है.

भाजपा सूत्रों की मानें तो अभी कई नेताओं के नाम आगे चल रहे हैं. इनमें से किसकी प्रदेश अध्यक्ष के रूप में ताजपोशी की जाएगी, ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा.

एक वरिष्ठ भाजपा नेता ने नाम जाहिर न करने की शर्त पर बताया कि भारतीय जनता पार्टी को ऐसा नेता अध्यक्ष बनाने की फिराक में है जो सवर्ण और पिछड़ा के साथ दलित वोट बैंक को सहेजकर रखे, लेकिन ज्यादातर चांस सवर्ण नेता के ही बन रहे हैं.

उन्होंने बताया कि गौतमबुद्धनगर के सांसद डॉ महेश शर्मा का नाम भी इस समय चर्चा में है. उनके पास सरकार का पांच साल का अनुभव है. वह संगठन के भी व्यक्ति माने जाते हैं.

इसी तरह उपमुख्यमंत्री डॉ. दिनेश शर्मा को भी संगठन में लाकर एक प्रयोग किया जा सकता है. महामंत्री विजय बहादुर पाठक भी अध्यक्ष पद के लिए संगठन की दृष्टि से उपयुक्त माने जा रहे हैं.

इसी प्रकार अगर भाजपा पिछड़े चेहरों में दांव लगाने की सोचेगी तो सबसे पहला नाम स्वतंत्र देव सिंह का है. वह योगी सरकार में परिवहन मंत्री और मध्यप्रदेश के प्रभारी भी हैं.

चुनाव के समय भाजपा उनसे रैली और संगठन के कार्यकर्ताओं की भीड़ एकत्रित करने कार्य लेती रही है. इसके बाद अभी आगरा से सांसद एस.पी. सिंह बघेल, मंत्री दारा सिंह चौहान का नाम भी चर्चा में है.

इसी प्रकार भाजपा अगर दलित समुदाय से बनाने की सोचेगी तो प्रधानमंत्री मोदी के संसदीय क्षेत्र के एमएलसी लक्ष्मण आचार्य, प्रो़ रामशंकर कठेरिया, विद्यासागर सोनकर जैसे नाम भी चर्चा में हैं.

 

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इस बार अध्यक्ष वर्ष 2022 में होने वाले अगले विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखकर ही बनाया जाएगा. ऐसे में यह जिम्मेदारी ऐसे किसी व्यक्ति को दी जा सकती है, जिसके नाम पर किसी प्रकार का विवाद नहीं हो और ना ही पार्टी में किसी प्रकार की गुटबंदी की शुरुआत हो.

वहीं मध्य प्रदेश में कांग्रेस डेढ़ दशक बाद सत्ता में लौटी है, और कांग्रेस की इस सफलता में आदिवासी वर्ग की बड़ी भूमिका रही है, मगर पार्टी के पास एक भी ऐसा आदिवासी चेहरा नहीं है, जिसकी पहचान पूरे प्रदेश में हो और उसके सहारे वह अपनी राजनीतिक जमीन को तैयार कर सके.

लिहाजा पार्टी ने आदिवासी नेता की तलाश शुरू कर दी है. कांग्रेस सूत्रों के अनुसार, पार्टी लोकसभा चुनाव में हार के बाद आदिवासी मतदाताओं को अपने साथ जोड़े रखने के लिए किसी सर्वमान्य आदिवासी नेता की तलाश कर रही है.

कांग्रेस के भीतर से आदिवासियों को महत्व देने की मांग उठी है. राज्य के मंत्री सज्जन सिंह वर्मा ने तो गृहमंत्री बाला बच्चन को प्रदेशाध्यक्ष बनाने की परोक्ष रूप से मांग कर डाली है. वह बच्चन को एक अनुभवी नेता बताते हैं.

दरअसल, राज्य में आदिवासी वर्ग की लगभग 22 प्रतिशत आबादी है. विधानसभा के 47 क्षेत्र इस वर्ग के लिए आरक्षित हैं. वर्ष 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने इन 47 में से 30 स्थानों पर जीत दर्ज की थी.

आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित क्षेत्रों में 60 प्रतिशत से ज्यादा स्थानों पर कांग्रेस को सफलता मिली थी. इसी तरह कांग्रेस के 114 विधायकों में 25 प्रतिशत से ज्यादा इस वर्ग के हैं.

विधानसभा चुनाव में जहां कांग्रेस को आदिवासी इलाकों में सफलता मिली, वहीं लोकसभा चुनाव में उसे इस वर्ग की एक भी सीट हासिल नहीं हो पाई. कांग्रेस को 29 सीटों में से सिर्फ एक सीट ही मिली है.

वह भी छिंदवाड़ा की है, जहां से कमलनाथ के पुत्र नकुलनाथ चुनाव जीते हैं. इस कारण से कांग्रेस आदिवासियों को अपने पाले में बनाए रखने की जुगत में जुट गई है.

राज्य में कांग्रेस के पास किसी दौर में दलवीर सिंह, भंवर सिंह पोर्ते, जमुना देवी जैसे आदिवासी नेता रहे हैं, जो सत्ता में रहे तो उनकी हनक रही और विपक्ष में रहने के दौरान उन्होंने सत्ता पक्ष को हमेशा मुश्किल में डाले रखा.

मगर जमुना देवी के निधन के बाद कांग्रेस में इस वर्ग का एक भी नेता उभरकर सामने नहीं आ पाया है. जो बड़े नाम वाले नेता हैं, उनकी खुद राजनीतिक जमीन कमजोर हो चली है. दूसरी ओर जनाधार वालों के पास गॉडफादर का अभाव है.

राज्य की कांग्रेस राजनीति में आदिवासी नेताओं पर गौर करें तो सरकार में मंत्री उमंग सिंगार, ओंमकार सिंह मरकाम, विधायक फुंदेलाल सिंह माकरे के चेहरे सामने आते हैं. ये सभी नई पीढ़ी के नेता हैं. पार्टी इन्हीं में से उस चेहरे पर दांव लगा सकती है, जो आदिवासियों के बीच सक्रिय है.

राजनीतिक विश्लेषक सॉजी थामस का कहना है, “आदिवासियों के बीच किसी दौर में कांग्रेस की गहरी पैठ रही है, उसका वोट बैंक है, उसी के चलते विधानसभा चुनाव में सफलता मिली, मगर वर्तमान दौर में कांग्रेस के भीतर इस वर्ग के नेताओं को महत्व नहीं मिल पाया है, उसके लिए इस वर्ग के नेता भी कम दोषी नहीं हैं, क्योंकि इन नेताओं ने आदिवासी संस्कृति से काफी दूरी बना ली है.”

एक आदिवासी नेता ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “वर्तमान में इस वर्ग से कांग्रेस के विधायक व मंत्री हैं, उनका रहन-सहन आदिवासियों जैसा नहीं रहा.

वे अंग्रेजी बोलने लगे हैं, बफे स्टाइल में भोजन करते हैं, लिहाजा आदिवासी उन्हें अपने से दूर पाने लगा है. समय रहते ये नेता नही चेते तो अगला चुनाव उनके लिए आसान नहीं होगा. लोकसभा चुनाव में मंत्री ओमकार सिंह और विधायक फुंदेलाल सिंह माकरे के विधानसभा क्षेत्र में ही पार्टी को जीत मिली है.”

 

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