120 साल पुरानी कहानी है अखिलेश-मुलायम की हार-जीत  

अखिलेशबीते कई हफ्तों से मुलायम सिंह यादव के परिवार में घटी घटनाएं फिल्मी कहानियों की याद दिलाती हैं। काफी उठा पटक के बीच अखिलेश टीपू से सुल्तान बनें और मुलायम हार कर बाजीगर। जैसा पहले सी ही तय माना जा रहा था। समाजवादी परिवार की कहानी भले रूपहले पर्दे जैसी लगे लेकिन ऐसा ही कुछ यूपी में करीब 120 साल पहले भी हो चुका है।

कहते हैं कि इतिहास खुद के दोहराता है। मुलायम और अखिलेश के बीच की जंग ने 1871 में बाप–बेटे के बीच की ठनाठनी की यादें ताजा कर दीं। उस दौर में अवध के इलाके में एक बहुत बड़े जमींदार होते थे, चौधरी गुरचरण लाल। रसूख की कोई कमी नहीं थी। गोंडा और आस-पास के क्षेत्र में उनके पास लाखों एकड़ जमीन थी।

आजमगढ़, झूंसी, इलाहाबाद और मनकापुर में इनकी बड़ी हवेलियां थीं। अवध ही नहीं पूरे हिंदुस्तान में उनकी धाक थी। इसके अलावा मिर्जापुर में गुरचरण लाल का लंबा चौड़ा खानदानी कारोबार भी था।

गुरचरण लाल सिर्फ पैसे के दम पर तो अमीर थे ही साथ ही व्यवहार में कहीं ज्यादा अमीर थे। समाज में हर तरफ उनके मित्र थे। स्वामी दयानंद सरस्वती, जिन्होंने आर्य समाज की स्थापना की, भी उनके मित्र थे।

ईस्ट इंडिया कंपनी ने बनारस से सटे मिर्जापुर को एक बड़ी मंडी के तौर पर बसाया था। यहां कपास और रेशम के कारोबार बड़े पैमाने पर था। इनमें कई कारोबार होते थे। इन सभी धंधों में चौधरी की तूती बोलती थी।

चौधरी गुरचरण ने तीन शादियां की थी और उनके सात बेटे थे। सबसे बड़े बेटे का नाम था बद्रीनारायण, जो चौधरी साब जैसे ही काबिल थे।

कांग्रेस के गठन के एक साल बाद, 1886 में कलकत्ता में हुए दूसरे महाधिवेशन में मिर्जापुर की तरफ से बद्रीनारायण शामिल हुए थे। रसूख इतना था कि 1911 में दिल्ली में जॉर्ज पंचम का दरबार हुआ तो सल्तनते बर्तानिया ने इन्हें भी निमंत्रण भेजा।

बाप बेटे में छिड़ी जंग की कहानी

महज 22 बीघे के जमीन के टुकड़े के लिए चौधरी गुरचरण और उनके बेटे बद्रीनारायण के बीच में मनमुटाव हो गया। इस जमीन को बेटा किसी और तरह से इस्तेमाल करना चाहता था और बाप किसी और तरह से।

बात इतनी बढ़ी की बाप-बेटे के बीच के सम्बंध काफी हद तक खराब हो गए। हर कोई हैरान। कुछ लोगों ने बीच-बचाव कराने की कोशिश भी की। बिल्कुल वैसा जैसे मुलायम और अखिलेश को लेकर हुआ।

बाप-बेटे को मनाने वालों में एक थे स्वामी दयानंद सरस्वती। इनकी इज्जत रखने के लिए 1876 में दोनों में राजीनामा भी हुआ। पर थोड़े दिन के बाद बाप और बेटा फिर लड़ पड़े।

उस 22 बीघे जमीन के टुकड़े के लिए साल 1877 में गुरुचरण लाल जी ने अदालत में मुकदमा दायर कर दिया। मुकदमे को 20 साल लगे इलाहाबाद हाईकोर्ट तक आने में। बाप बेटे में से किसी ने ना समय का मुंह देखा ना पैसे का।

उस समय के इलाहाबाद के दो सबसे बड़े फिरंगी वकील, लेन हार्वुड और एलिस्टन को गुरचरण लाल ने रख लिया। बेटे कैसे पीछे रहता। तो उसने उस समय के सबसे बड़े और महंगे हिन्दुस्तानी वकील मोतीलाल नेहरू और तेज बहादुर सप्रू को अपनी तरफ मिलाया। खैर 57 पेशियों के बाद हाईकोर्ट ने 1897 में बेटे के पक्ष में फैसला दिया।

मुकदमा दायर होने से लेकर हारने तक जिस पिता ने बेटे से बरसों तक उससे बात भी नहीं की थी, उसने एक बड़ी दावत दी। जो सबको हैरत में डालने वाला था। इसमें उन्होंने बेटे को भी बुलाया। अब तो सब भौंचक्के।

लोग हैरान कि ये बेटे से हारने पर क्यों दावत दे रहे हैं। कोई बोला इसलिए कि बेटे ने साबित कर दिया कि वो बड़ा हो गया है। कोई बोला कि बेटे को बेइज्जत करने के लिए कि उसने बाप को अदालत में हराया। गुरचरण लाल ने बोला यह सब आपकी समझ से परे है।

खैर दावत हुई। बेटा आया और उस जमाने के रईसों की तरह ऊंचा रौबदार साफा पहन कर आया। लोग सांसे रोक कर देख रहे थे कि अब क्या हंगामा होगा।

बेटा दनदनाता हुआ बाप के सामने पहुंचा और सबके सामने पांवों पर अपना साफा रख कर बोला ‘अब जो है सब आपका है जो चाहे करिए’।

इस तरह बेटे ने बाप को एक बार फिर सबके सामने हराया।

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