कन्फ्यूज मुस्लिम, भटके जाटव और बिखरे हिंदू… तो क्या ये है आने वाले यूपी विधानसभा की तस्वीर
लखनऊ। कन्फ्यूज मुस्लिम, भटके जाटव और बिखरे हिंदू दिखने से आने वाले यूपी विधानसभा की तस्वीर त्रिकोणीय नजर आ रही है। अब जब उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पांच चरणों के चुनाव के प्रचार की समय सीमा खत्म हो चुकी है। देश के सबसे बड़े विधायक संख्या वाले राज्य में सियासी हलके के हालात काफी हद तक साफ नजर आने लगे हैं। वर्तमान समय में सत्ता पर काबिज समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के हालात पूर्व चुनावों की तरह मजबूत नहीं दिख रहे हैं। लंबे समय से उत्तर प्रदेश की सत्ता से दूर भारतीय जनता पार्टी में भी प्रदेश का कोई ऐसा निर्विवाद जमीनी नेता नहीं मिला, जिसे भाजपा चुनावों में प्रोजेक्ट कर सके। सवा सौ साल के गौरवमयी इतिहास की साक्षी रही कांग्रेस पार्टी भी प्रदेश में घुटनों के मर्ज से परेशान हो साइकिल की सवारी करने को मजबूर है। कुल मिला कर देखा जाए तो चुनावी परिदृश्य किसी एक पार्टी के पक्ष में जाता हुआ नहीं दिख रहा है। जो समीकरण बन रहे हैं। उनके आधार पर बात की जाए तो किसी एक दल को बहुमत के आसार नहीं हैं।
बात की जाए मायावती की तो उनकी पार्टी जिस 11 प्रतिशत जाटव वोट बैंक के आधार पर चार बार सत्ता के शिखर पर पहुंची उसमें अब पहले जैसा उत्साह नहीं दिख रहा है। इसका कारण भी यह बताया जा रहा है कि सत्ता के शिखर को छूने के बाद मायावती तानाशाही अंदाज में रही और अपने वोट बैंक के लिए उन्होंने कुछ खास नहीं किया। सिवाय अपने परिवार को छोड़कर आज उनके भाई 500 कारपोरेट कंपनियों के शेयर होल्डर हैं। वहीं अन्य दलित वर्ग के पासी मल्लाह व वाल्मीकि समुदाय उनके साथ पहले से ही साथ नहीं था। वर्ष 2007 में बसपा ने इसी जाटव वोट बैंक के साथ ब्राहम्णों केा अपने साथ जोड़कर विधानसभा में जीत का तिलक किया था। लेकिन इस जीत के बाद ब्राहम्णों में एक परिवार को छोड़कर शेष को घंटा घडियाल बजाने के अतिरिक्त सत्ता की मलाई में हिस्सा न मिलने पर इस वर्ग ने उनसे किनारा कर लिया। इस बार मायावती का खास जोर मुसि्लम- जाटव गठजोड़ का रहा है। लेकिन यह अभी तक के हालात में यह फिट होता नहीं दिख रहा है।
बात समाजवादी पार्टी की हो तो यहां के हालात कुछ बिखरे हुए हैं। सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह जनता की नजर में पारिवारिक कलह को रोकने में नाकाम सिपाही की तरह दिखे। वहीं पार्टी की मुख्य घुरी रहे शिवपाल पार्टी में छह महिनों में अर्श से फर्श पर आ चुके हैं। पार्टी में उनका अपना एक वोट बैंक है और यह वोट बैंक तबका पार्टी में उपेक्षित सा पड़ा है। वहीं यादव परिवार की कलह से वोटरों में भी अच्छा संदेश नहीं गया है। सपा भी इस चुनाव में ओबीसी के 9 प्रतिशत यादव और 19 प्रतिशत मुसलमान फैक्टर को अपने पाले में करने की रणनीति बना कर मैदान में उतरी है। मुसलमान भी इस बार किसी भी दल को गैर भाजपा के विरोध में मजबूती के साथ खड़ा न देखकर भ्रमित हैं।
ऐसे में मुसलमान वोटर किसी एक पार्टी के पक्ष में जाने का मन नहीं बना पाया है। इस वर्ग का एक पार्टी में न जाना कहीं न कहीं प्रदेश की तीसरी बड़ी पार्टी भाजपा के लिए राहत की खबर देने वाला हो सकता है। भाजपा को अगड़ों की पार्टी का रहनुमा माना जाता है और जिस तरह से मतदान का प्रतिशत बढ़ा है उसे देखते हुए भाजपा को कुछ सीटों का फायदा अवश्य होता दिख रहा है। भाजपा की भी व्यथा यह है कि उसके पास प्रदेश में बतौर सीएम प्रोजेक्ट करने के लिए कोई सर्वमान्य नेता नहीं है। योगी आदित्य नाथ की चर्चा तो हुई थी लेकिन उसे एंटी मुिस्लम छवि व वोटों का पोलराइजेशन देखते हुए इसकी घोषणा नहीं की गई। एक तरह से देखा जाए तो भाजपा को छोड़कर सपा व बसपा में मुख्यमंत्री पद के दावेदार पर कोई शंका नहीं है। दूसरी ओर भाजपा में ऐसा नहीं हो पाया है।
राज्य में सपा व कांग्रेस में देरी से हुए गठबंधन ने भी दोनों दलों का काम खराब किया है। दोनों ही दलों में पार्टी की ओर से एक बार उम्मीदवार की घोषणा होने के बाद गठबंधन में दूसरे दल को सीट जाने पर पार्टी के बड़़ी संख्या में उम्मीदवार मैदान में डटे हैं। ये वो उम्मीदवार हैं जो पार्टी के वोट कटवा की भूमिका में हैं। हलांकि चुनाव का पूरा व्यैरा तो 11 मार्च को मतगणना के बाद ही सामने आएगा, लेकिन किसी एक पार्टी के पक्ष में चलती चुनावी वयार अभी तक नहीं दिखी है।