अफगानिस्तान संकट : जानिए कैसे हुए था तालिबान का जन्म, समझिए पूरी कहानी । Crime

पश्तो भाषा के अनुसार तालिबान का अर्थ छात्र होता है। यह ऐसे छात्र होते हैं जो इस्लामिक कट्टरपंथ की विचारधारा पर यकीन करते हैं। बता अगर तालिबान की हो तो यह कोई बहुत पुराना आतंकवादी संगठन नहीं है। इसकी शुरुआत 1990 के दशक से मानी जाती है। वह भी उस दौरान से जब सोवियत संघ ने अपनी सेना को अफगानिस्तान से निकालना शुरु किया था। अफगानिस्तान में सोवियत संघ की मौजूदगी 10 वर्षों तक रही। यह बात 1979 से 1989 के बीच की है।

वर्ष 1979 में सोवियत संघ की मदद से अफगानिस्तान में तख्तापलट होने के बाद कम्युनिस्ट सरकार का गठन हुआ। इसी के साथ अफगानिस्तान पूरी तरह से सोवियत संघ के नियंत्रण में चला गया। यह उसी समय की बात है जब अफगानिस्तान में सोवियत संघ के खिलाफ मुजाहिद्दीन गुट और नेता मजबूत हुए थे। इन अलग-अलग गुटों को सोवियत संघ से लड़ने के लिए अमेरिका, पाकिस्तान, चीन, ईरान और सऊदी अरब से पैसा और हथियार मुहैया हुए। उस दौरान अमेरिका अपने फायदे के लिए इस तरह के संगठनों के साथ था।

कैसे पड़ी तालिबना की नींव?
सऊदी अरब वह देश है जिसने तालिबान की नींव रखने में उसकी मदद की। 1990 के दशक में जब अफगानिस्तान में पश्तून आंदोलन चरम पर था उस समय सऊदी अरब की तरफ से इसमें भरपूर समर्थन मिला। लोगों को इस्लामिक मदरसों में भेजना और सुन्नी इस्लाम की कट्टर मान्यताओं का प्रचार करना ही इस आंदोलन का मकसद था। इन मदरसों में लोगों की पढाई का खर्च सऊदी अरब उठाता था। ऐसा माना जाता है कि उत्तरी पाकिस्तान के मदरसों से तालिबान का विचार निकला। इसके बाद अफगानिस्तान में इसका विस्तार हुआ। यानि की तालिबान की कर्मभूमि पाकिस्तान ही है।

पश्तून आंदोलन ने तालिबान को मुजाहिद्दीन गुटों से अलग पहचान दिलाई। तलिबान ने ही अफगानिस्तान और पाकिस्तान के कुछ हिस्सों में शांति, सुरक्षा और शरिया कानून की स्थापना का वादा किया। सत्ता के लिए एक नया संघर्ष शुरु हो गया। वर्ष 1996 आते-आते तालिबान ने काबुल पर कब्जा कर लिया। यानि काबुल पर तालिबान पर ये पहला कब्जा नहीं है। इससे पहले भी वो नियंत्रण की लड़ाई लड़ चुका है। इतना फर्क इतना ही है कि तब अमेरिका उसके साथ था और अब अमेरिका अफगानिस्तान से अपनी सेना को बुलाकर कथिततौर पर तालिबान की अनौपचारिक मदद कर रहा है।

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