ऐसी महिलाएं जिन्होंने अपने कार्यों से बनाया खास मुकाम

womens-day_landscape_1457351287एजेंसी/महिला दिवस के खास मौके पर हम आपके सामने लाए हैं 15 ऐसी महिलाएं जो शायद इतनी चर्चित नहीं हुई लेकिन उन्होंने अपने कार्यों से समाज में खास मुकाम हासिल किया है।

ये सभी महिलाएं पेज थ्री की दुनिया से दूर रहकर और सामाजिक सरोकारों के साथ खुद को इस योग्य बनाया जिससे दूसरों के लिए मिसाल बन सकें।

इन्होंने कठिन और प्रतिकूल स्थितियों में न सिर्फ अपने जीवन को संवारा बल्कि समाज के लिए प्रेरणा का विषय बनीं। ये सभी महिलाएं समाज में अलग-अलग कार्यों में सक्रिय हैं।

अपने क्षेत्र में किए इनके कार्यों की बदौलत ही अमर उजाला रूपायन अचीवर्स अवार्ड- 2015 से इन्हें सम्मानित किया गया। बॉक्सर मैरीकॉम ने उन महिलाओं को सम्मानित किया। आइये जानते हैं इनके बारे में…।बचपन से दौड़ती रहीं, अब एक विचार बनकर दौड़ रही हैं। राष्ट्रीय स्तर की धाविका अंजनी मल्लाह के प्रयास से उनके गांव को पचास शौचालय मिले हैं। पूरे इलाके की सोच को बदल देने का सफर जारी है।

काम आसान नहीं था। ऐसे काम आसान भी नहीं होते। लेकिन, राष्ट्रीय स्तर की धाविका रह चुकी अंजनी मल्लाह भी कहां थकने वाली थीं। हाथ-पांव जोड़े, खुशामद की, बीमारी का डर दिखाया, कहीं खुद भी डराया फिर भी गांव में शौचालय बनवाने को जल्दी राजी नहीं होते थे लोग। शाम को राजी हुए, तो अगली सुबह मुकर गए। पैसों का रोना अलग। वैसे भी गांवों में बहाने की कमी होती है क्या? लेकिन अंजनी मल्लाह ने भी तो जिद ठान ली थी कि अपने गांव रानीपुर  को शौचालय के मामले में आदर्श बनाकर रहूंगी। अंजनी का प्रयास ही रहा कि बस्ती जिले के रुधौली विकास क्षेत्र का गांव रानीपुर धीरे-धीरे बदलने लगा, क्योंकि अंजनी की बातों में दम था।
 
अंजनी का सपना सीआरपीएफ में प्रवेश पाना था। उसने दौड़ना शुरु किया। लेकिन लंबाई कम होने के कारण वह चूक गई। इसके बावजूद वह रुकी नहीं। थकी नहीं। दौड़ती रही। वर्ष 2011 में बस्ती के हरैया में मिनी मैराथन का आयोजन हुआ, इसमें 300 लड़कों में अकेली दौड़ने वाली लड़की अंजनी थीं। दौड़ी भी और जीती भी। 2014 में पुणे इंटरनेशल गेम्स में भी उन्होंने अपनी काबिलियत को दिखाया। इलाहाबाद में आयोजित नेशनल मैराथन में 42 किलोमीटर की दौड़ में 13वां स्थान पाने वाली अंजनी ने रफ्तार को ही अपनी जिंदगी का मकसद बना लिया था। लेकिन सुबह अभ्यास के लिए निकलती, तो खुले में शौच करते लोगों को देखकर परेशानी होती। साथ ही महिलाओं को खुले में शौच जाते देख दुख भी होता।  अंजनी ने तभी ठान लिया कि वह गांव में लोगों के लिए शौचालय बनवाकर रहेगी।

इस मुहिम का झंडा हाथ में लेकर अंजनी ने अपने साथ अन्य महिलाओं को भी जोड़ा। ब्लॉक स्तर पर धरना प्रदर्शन से बात नहीं बनी, तो तहसील पर अपनी मांग रखी। यहां से भी बात न बनी, तो डीएम कार्यालय पर बैठ गईं। आखिर प्रयास सफल हुआ।  उनके गांव में शौचालय बनने लगे। आज उनके गांव में पचास से ज्यादा शौचालय बन चुके हैं और कुछ पर काम चल रहा है। अंजनी के इस कदम से गांव की महिलाओ को अब खुले में शौच के लिए नहीं जाना पड़ता। अपने इस अभियान को अंजनी ने अपनी ससुराल संत कबीरनगर के मेडरापार गांव में भी चला रखा है। यहां डीएम से लेकर विधायक और सांसद तक का घेराव वह कर चुकी हैं। उन्हें मेडरापार में 26 शौचालय, एक आंगनबाडी, एक स्कूल बनाने का आश्वासन मिल चुका है।  अंजनी इन गांवों को शौचालय दिलाने के बाद शराबबंदी और शिक्षा के लिए स्कूल खुलवाने के अभियान की शुरुआत करना चाहती हैं। अंजनी कहती हैं,`ये लड़ाई हम नहीं लड़ेंगे, तो कौन लड़ेगा। समाज को बदलना है, तो शुरुआत तो करनी ही पड़ेगी।’ये हैं बहराइच की डॉक्टर बलमीत कौर। इन्होंने शारीरिक और मानसिक रूप से अशक्त बच्चों के प्रति संवेदना तो सब रखते हैं, लेकिन डॉ. बलमीत कौर संवेदना से आगे जाकर मूक-बधिर बच्चों के लिए बड़ी बहन की भूमिका में आ जाती हैं। अब बड़ी बहन बन गईं, तो उन्हें पढ़ाने-लिखाने और नए सिरे से जिंदगी को बसाने का प्रयास तो करना ही पड़ेगा।

संसार का हर काम पुरस्कार के लिए तो नहीं होता। 22 साल पहले बलमीत के मन में यह ख्याल तब आया था, जब आसपास के लोग जिंदगी का एक ही मकसद बताते थे, ढेर सारे रुपये, बड़ा-सा ओहदा और राज सम्मान…पुरस्कार और न जाने क्या-क्या? बलमीत भी चाहतीं, तो ये सब पा सकती थीं। अच्छी खासी डिग्री थी। हाथ में रिजल्ट था।

बहराइच की इस पीएचडी-होल्डर को बड़ी-सी नौकरी मिल सकती थी, लेकिन बलमीत ने ऐसे बच्चों के लिए काम करना पसंद किया, जो शारीरिक रूप से अक्षम थे। हालांकि, यह ख्याल उनको अपने छोटे भाई गुरविंदर की विकलांगता को देखकर आया। उन्होंने महसूस किया कि अगर इन बच्चों की तरफ कोई ध्यान दे, तो ये भी समाज के विकास में योगदान दे सकते हैं। इसी सोच के साथ बलमीत ने शुरू किया अपना सफर।

अपने 22 साल के सफर में आर्थिक और अन्य तरह की परेशानियों ने बलमीत के हौसलों को ध्वस्त करना चाहा, लेकिन बलमीत ने हार नहीं मानी। अपने पिता के बसाए `बाबा सुंदर शिक्षा समिति’ के जरिये बलमीत अब तक सैकड़ों मूक-बधिर, मानसिक और शारीरिक रूप से निशक्त बच्चों को शिक्षित कर चुकी हैं और उनको आत्मनिर्भर बना चुकी हैं। मूक-बधिर बच्चों के लिए एक स्कूल भी खोला है। यही नहीं, वह बच्चों के रहने, खाने, पढ़ने की व्यवस्था भी खुद करती हैं। गरीब और असहाय बच्चों का खर्चा बलमीत खुद उठाती हैं। आय का कोई साधन न होने के बावजूद भी वह पूरी हिम्मत के साथ अशक्त बच्चों के साथ खड़ी हैं। दूसरों के भले के लिए, अपने शरीर के दान की घोषणा कर चुकीं बलमीत की जिंदगी का एक ही मकसद है,`जो मेरे पास आए, कुछ बनकर जाए, कुछ सीखकर जाए।’

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