
राजशाही के अवशेषों पर लोकतंत्र की मुहर लगाते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने आगरा के ऐतिहासिक आवागढ़ शाही परिवार के दोनों वारिसों को कड़ा संदेश दे दिया। जस्टिस सौरभ श्याम शमशेरी की सिंगल बेंच ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि देश में राजतंत्र खत्म हो चुका है, इसलिए “बड़े बेटे का बड़ा बेटा ही राजा बने” जैसी परंपरा अब बेमानी है।
कोर्ट ने दोनों भाइयों की उपाधि की लड़ाई को “अव्यावहारिक” करार देते हुए विरासत के बजाय सत्ता के लिए हो रहे झगड़े पर ब्रेक लगा दिया।
विवाद की जड़ आगरा का राजा बलवंत सिंह कॉलेज और बलवंत एजुकेशनल सोसाइटी था, जहां उपाध्यक्ष का 5 साल का कार्यकाल दोनों भाइयों – बड़े बेटे जितेंद्र पाल सिंह और छोटे बेटे अनिरुद्ध पाल सिंह – के बीच बंटवारा बन गया। कोर्ट ने क्रांतिकारी फैसला सुनाया कि अब कार्यकाल को दो हिस्सों में बांट दिया जाए, ताकि दोनों भाई बारी-बारी से अपनी जिम्मेदारी निभाएं। इससे “राजा की उपाधि” का दावा खुद-ब-खुद बेमानी हो गया। कोर्ट ने टिप्पणी की कि दोनों वारिस अपनी विरासत संवारने के बजाय सिर्फ ताज के लिए आपस में भिड़े हुए हैं, जो न सिर्फ परिवार को तोड़ रहा है बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों का भी मजाक उड़ा रहा है।
आवागढ़ रियासत जादौन राजपूतों की ऐतिहासिक धरोहर है, जो 14वीं सदी से चली आ रही है। स्वतंत्रता के बाद भी परिवार “राजा” की उपाधि और संपत्ति को लेकर कोर्ट-कचहरी के चक्कर काटता रहा। बड़े भाई जितेंद्र पाल सिंह जहां परंपरा का हवाला देकर पूरा हक मांग रहे थे, वहीं छोटे अनिरुद्ध पाल सिंह ने बराबरी की लड़ाई छेड़ी। कोर्ट ने दोनों की याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए कहा कि अब समय बदल चुका है – संपत्ति और संस्थानों का प्रबंधन लोकतांत्रिक तरीके से हो, न कि राजसी फरमान से।
यह फैसला न सिर्फ आवागढ़ परिवार के लिए बल्कि देश के तमाम पूर्व राजघरानों के लिए सबक है कि उपाधियां अब सिर्फ नाम की रह गई हैं। कोर्ट ने साफ किया कि कानून सबके लिए बराबर है, चाहे खानदान कितना भी शाही क्यों न हो।
परिवार में तनाव कम करने और संस्थानों को सुचारु चलाने के लिए यह बंटवारा दोनों पक्षों को राहत देगा, लेकिन “राजा” बनने का सपना अब सपना ही रह जाएगा।




