महात्मा गांधी नहीं सुभाष चंद्र बोस की आर्मी ने दिलाई थी आजादी, यहां मिलते हैं साक्ष्य…

नई दिल्ली। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जिंदगी से जुड़े रहस्यों में कई ऐसे राज हैं जो सिर्फ अनुमान के तौर पर ही हमारे सामने लाए जाते रहे हैं। नेताजी की जिंदगी से संबंधित नई जानकारियां इतिहास का बदलाव करती रही हैं।

महात्मा गांधी बनाम बोस

नेताजी की आर्मी( इंडियन नेशनल आर्मी) ने भारत को गुलामी की बेड़ियों से आजद कराया था, इस बात को स्पष्ट कराती है उन पर लिखी एक किताब। जो सीधे तौर पर आजादी में उनकी भूमिका का वर्णन करती है।

उस किताब में दावा किया गया है कि महात्मा गांधी के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के ज्‍यादा बोस की आर्मी की वजह से भारत को आजादी मिली।

महात्मा गांधी बनाम बोस
नेताजी पर रिसर्च कर चुके मिलिट्री हिस्टोरियन जनरल जीडी बख्शी की किताब ‘बोस: इंडियन समुराई’ में यह बातें लिखी गई हैं। बख्शी के मुताबिक, तब के ब्रिटिश पीएम रहे क्लीमेंट एटली ने कहा था कि नेताजी की इंडियन नेशनल आर्मी का आजादी दिलाने में अहम हिस्सा था। वहीं, गांधीजी के नेतृत्व में चलाए जा रहे अहिंसा आंदोलन का असर काफी कम था। बख्शी ने तर्क के तौर पर एटली और पश्चिम बंगाल के गवर्नर रहे जस्टिस पीबी चक्रबर्ती के बीच की बातचीत का जिक्र भी किया है।

ब्रिटिश पीएम की बातचीत का खुलासा

साल 1956 में एटली से हिन्दुस्तान आए थे और कोलकाता में पीबी चक्रबर्ती के गेस्ट थे। भारत की आजादी के डॉक्यूमेंट्स पर एटली ने ही हस्ताक्षर किए थे। इसीलिए एटली और पीबी चक्रबर्ती का बातों को तवज्‍जो दी जा रही है। चक्रबर्ती कलकत्ता हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस और वेस्ट बंगाल के एक्टिंग गवर्नर भी थे। चक्रबर्ती ने इतिहासकार आरसी मजूमदार को उनकी किताब ‘ए हिस्ट्री ऑफ बंगाल’ के लिए खत लिखा था।

चक्रबर्ती ने साफ-साफ इस बात को लिखा, ‘मेरे गवर्नर रहने के दौरान एटली दो दिन के लिए गवर्नर हाउस में रुके थे। इस दौरान ब्रिटिशर्स के भारत छोड़ने के कारणों पर लम्बा डिस्कशन हुआ। मैंने उनसे पूछा था कि महात्मा गांधी का भारत छोड़ो आंदोलन (1942) आजादी के कुछ साल पहले ही शुरू हुआ था। क्या उसका इतना असर हुआ कि अंग्रेजों को इंग्‍लैण्‍ड लौटना पड़ा।’

बक्‍शी की की किताब की मानें तो ‘जवाब में एटली ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आर्मी की कोशिशों को अहम बताया था।’  चक्रबर्ती ने जब एटली से पूछा कि महात्मा गांधी के अहिंसा आंदोलन का कितना असर हुआ तो एटली ने हंसते हुए जवाब दिया-काफी कम। चक्रबर्ती और एटली की इस बातचीत को 1982 में इंस्टीट्यूट ऑफ हिस्टोरिकल रिव्यू में राजन बोरा ने ‘सुभाष चंद्र बोस-द इंडियन नेशनल आर्मी एंड द वॉर ऑफ इंडियाज लिबरेशन’ आर्टिकल में छापा था।

सैनिकों का विद्रोह आया काम

1946 में रॉयल इंडियन नेवी के 20 हजार सैनिकाें ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत कर दी थी। सैनिक 78 जहाज लेकर मुंबई पहुंच गए थे। इन जहाजों पर तिरंगा भी फहरा दिया गया था। हालांकि तब इस बगावत को दबा लिया गया। लेकिन अंग्रेजों के लिए यह घतरे की घंटी थी।

विश्व युद्ध का भी पड़ा असर

1939 में शुरू हुआ दूसरा विश्‍व युद्ध 1945 में खत्म हो चुका था। ब्रिटेन और अमेरिकी सेनाओं की जीत हुई थी, हिटलर की जर्मन सेना हार गई थी। नेताजी की इंडियन नेशनल आर्मी (आईएनए ) की भी हार हुई थी। ब्रिटेन हारी हुई सेनाओं पर केस चलाना चाहता था। आईएनए सैनिकों पर भी केस चला था। इसे लाल किला केस (रेड फोर्ट ट्रायल) नाम दिया गया था। नेहरू, भूलाभाई देसाई, तेजबहादुर सप्रू ने आईएनए के तीन कमांडरों का केस लड़ा और जीता।

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भारतीय सैनिकों से नहीं लड़ना चाहते थे ब्रिटिश सैनिक

दूसरे विश्व युद्द के बाद 25 लाख सैनिकों को ब्रिटिश सेना में कमीशंड किया गया था। इंटेलिजेंस रिपोर्ट के मुताबिक 1946 में भारतीय सैनिकों ने ब्रिटिश सत्ता मानने से इनकार कर दिया था। उस समय भारत में केवल 40 हजार ब्रिटिश सैनिक थे। इनमें से ज्यादातर सैनिकों ने भारतीय सैनिकों से न लड़ने और घर वापसी की बात कही थी। इसके बाद अंग्रेजों ने यह तय कर लिया था कि वे भारत छोड़ देंगे।

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