हरि अनंत हरिकथा अनंता

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  • सती का पश्चाताप और दक्ष का यज्ञ

सती को घोर पछतावा हो रहा था, उधर भगवान शिव अखंड समाधि में लीन थे। सती ने मन ही मन प्रभु श्री राम से प्रार्थना की हे कृपालु! आप तो सभी कष्टों को दूर करने वाले हैं, इसलिए भगवान शिव ने मेरे जिस शरीर का त्याग कर दिया है, उससे मुझे शीघ्र मुक्ति दिला दें। सती के पिता दक्ष ने उसी समय एक यज्ञ किया और उस यज्ञ में भगवान शिव का अपमान देखकर सती ने अपना शरीर योग की अग्नि से भष्म कर डाला। गोस्वामी तुलसीदास ने इस प्रसंग को बहुत ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है-

सती बसहिं कैलास तब, अधिक सोचु मनमाहिं।
मरमन कोऊ जान कछु, जुगराम दिवस सिराहिं।

तब सती जी कैलाश पर रहने लगीं। उनके मन में बहुत दुख था। इस रहस्य को कोई जान भी नहीं पा रहा था। सती को एक-एक दिन एक युग की तरह लम्बा दिखने लगा।

नित नव सोचु सती उर भारा, कब जैहउँ दुख सागर पारा।
मैं जो कीन्ह रघुपति अपमाना, पुनि पति बचनु मृषाकरि जाना।
सो फलु मोहि विधाता दीन्हा, जो कछु उचित रहा सोइ कीन्हा।
अब विधि अस बूझिअ नहिं तोही, संकर विमुख जिआवसि मोही।

सती जी के मन नित्य नया सोच हो रहा था कि मैं इस दुख रूपी समुद्र के पार कब जा पाऊंगी। वे सोचती थीं कि मैंने जो श्री रामचन्द्र जी का अपमान किया है और फिर पति के बचनों को झूठ जाना, उसका फल विधाता ने मुझको दिया है। विधाता ने वही किया जो उचित था लेकिन हे विधाता अब तुझे यह उचित नहीं है कि शंकर से बिमुख होने पर भी मुझे जीवित रखे हुए हैं।

कहि न जाइ कछु हृदय गलानी, मन महुं रामहिं सुमिर सयानी।
जौं प्रभु दीन दयालु कहावा, आरति हरन वेद जसु गावा।
तौ मैं विनय करउं कर जोरी, छूटउ बेगि देह यह मोरी।
जौं मोरें सिवचरन सनेहू, मन क्रम बचन सत्य ब्रतु एहू।

सती जी के हृदय में इतनी ग्लानि (पश्चाताप) थी कि उसे कहा नहीं जा सकता। बुद्धिमानी सती जी वे तब मन में श्री रामचन्द्र जी का स्मरण किया और कहा- हे प्रभो यदि आप दीनदयाल कहलाते हैं और वेदों ने आपका यह यश गाया है कि आप दुखों को हरने वाले हैं, तो मैं हाथ जोडक़र विनती करती हूं कि मेरी ये देह जल्दी छूट जाए। यदि मेरा शिवजी के चरणों में प्रेम है और मेरा यह प्रेम व्रत मन, वचन और कर्म से भी सत्य है-

तौ सब दरसी सुनिय प्रभु करउ सो बेगि उपाइ।
होइ मरनु जेहिं बिनहिं श्रम दुसह विपत्ति बिहाइ।

तो हे सर्वदर्शी प्रभु सुनिए और शीघ्र ही वह उपाय करिये जिससे मेरा मरण हो (मृत्यु हो) और बिना ही परिश्रम यह पति

परित्याग रूपी असह्य विपत्ति दूर हो जाए।
एहि विधि दुखित प्रजेस कुमारी, अकथनीय दारुन दुखु भारी।
बीते संबत सहस सतासी, तजी समाधि संभु अबिनासी।
रामनाम सिव सुमिरन लागे, जानेउ सतीं जगतपति जागे।
जाइ संभु पद बंदनु कीन्हा, सन्मुख संक आसनु दीन्हा।

दक्षसुता सती इस प्रकार बहुत दुखी थीं। उनका इतना दारुण दुख था जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। सत्तासी हजार वर्ष बीत जाने पर अविनाशी शिव जी ने समाधि खोली और राम नाम का स्मरण (उच्चारण) करने लगे। सती ने समझ लिया कि अब जगत के स्वामी शिव से समाधि से जाग गये हैं। उन्होंने जाकर शिवजी के चरणों में प्रणाम किया और शिवजी ने भी उनको

बैठने के लिए अपने सामने आसन दिया।
लगे कहन हरि कथा रसाला, दच्छ प्रजेस भए तेहि काला।
देखा विधि विचारि सब लायक, दच्छहिं कीन्ह प्रजापति नायक।
बड़ अधिकार दच्छ जब पावा, अति अभिमानु हृदयं तब आवा।
नहिं कोउ अस जनमा जगमाहीं, प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं।

भगवान शंकर ने अपने सामने आसान पर सती को बैठाकर भगवान की रसमयी (सरस) कथाएं सुनाईं। उसी समय दक्ष प्रजापति राजा हुए। ब्रह्मा जी ने सब प्रकार से योग्य समझकर दक्ष को प्रजापतियों का नायक बना दिया। दक्ष ने जब इतना बड़ा अधिकार पाया तो उनके मन में अत्यन्त अभिमान आ गया। शंकर जी ने सती से कहा कि संसार में ऐसा कोई नहीं पैद

हुआ है जिसको प्रभुता पाकर घमंड न आ गया हो।
दच्छ लिए मुनि बोलि सब करन लगे बड़ जाग।
नेवते सादर सकल सुर जे पावत मख भाग।
किन्नर नाग सिद्ध गंधर्वा, बधुन्ह समेत चले सुर सर्वा।

बिष्नु विरंचि महेस बिहाई, चले सकमल सुर जान बनाई।
भगवान शंकर ने बताया कि प्रजापतियों के नायक बनने पर दक्ष ने एक बड़ा यज्ञ किया है। इस यज्ञ में उन सभी देवताओं को निमंत्रित किया गया है जो देवता यज्ञ का भाग ग्रहण करते हैं। दक्ष का निमंत्रण पाकर किन्नर, नाग, सिद्ध, गंधर्व और सब देवता अपनी-अपनी स्त्रियों समेत जा रहे हैं। बिष्णु, ब्रह्मा और महादेव को छोडक़र सभी देवता अपना-अपना विमान सजाकर जा रहे हैं।

सतीं बिलोके ब्योम बिमाना, जात चले सुंदर बिधि नाना।
सुर सुंदरी करहिं कल गाना, सुनत श्रवन छूटहिं मुनि ध्याना।
पूछेउ तब सिव कहा बखानी, पिता जग्य सुनि कछु हरषानी।
जौं महेसु मोहि आयसु देहीं, कछु दिन जाइ रहौं मिस एहीं।

सती ने तब आकाश की तरफ देखा कि सुन्दर विमान चले जा रहे हैं। देवताओं की स्त्रियां हंसी-विनोद करते गा रही हैं जिसको सुनकर मुनियों का ध्यान भी भंग हो जाता है। सती ने शिवजी से पूछा तो उन्होंने ये सब बातें बतायीं। पिता के यज्ञ की बात सुनकर कुछ हर्षित हुईं, ज्यादा खुशी इसलिए नहीं थी कि यज्ञ में शिवजी को बुलाया ही नहीं गया था। सती सोचने लगीं कि यदि

भगवान शिव आज्ञा दें तो कुछ दिन पिता के घर इसी बहाने रहूं।
पति परित्याग हृदय दुखु भारी, कहइ न निज अपराध विचारी।
बोलीं सती मनोहर बानी, भय संकोच प्रेम रस पानी।
पिता भवन उत्सव परम जौं प्रभु आयसु होई।
तौ मैं जाउं कृपायतन सादर देखन सोइ।

सती के मन में पति परित्याग का असहनीय दुख भरा है। इसे किसी से कह भी नही सकतीं क्योंकि उन्होंने स्वयं ही अपराध किया है। इसलिए मन में भय और संकोच होते हुए भी वाणी में मधुरता लाते हुए सती ने कहा कि मेरे पिता के घर में बड़ा उत्सव हो रहा है और यदि प्रभु अपनी आज्ञा दें मैं भी उस यज्ञ (उत्सव) को जाकर देख आऊं।-क्रमश: (हिफी)

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