जानिए इस मदर्स डे पर बेटियों का भविष्य ऐसे संवारती एक मां…

दोपहर को उषा देवी के एक बेडरूम का घर अस्त-व्यस्त हो उठता है। उसकी छोटी बेटी बेड पर पानी डाल देती है, तो छोटा बेटा फर्श पर खाना बिखेर देता है। जबकि दस साल की बेटी उसे होमवर्क दिखाने लगती है।

मदर डे

 

लेकिन ‘मुझे दोपहर में एक घंटा खाने की छुट्टी मिलती है’, यह कहते हुए उषा देवी अपने छोटे बेटे को दूध पिलाने लगती है। पूरे दिन में यही एक घंटा होता है, जब बाहरी दिल्ली स्थित नरेला की एक कंस्ट्रक्शन कंपनी में काम करने वाली उषा देवी अपने बच्चों से मिलती है।

उषा देवी की तरह लाखों लोग हैं, जो अपने पुरखों के गांव छोड़ शहरी भारत में आजीविका के लिए कंस्ट्रक्शन कंपनियों में काम करने के लिए आते हैं। नरेला में झुग्गियों में रहने वाले लोगों के लिए निर्माणाधीन एक सरकारी आवासीय परियोजना में उषा देवी सफाई का काम करती है।

 

 

देश के सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण क्षेत्र का योगदान आठ प्रतिशत है। पर कम मजदूरी वाले इन पेशों में आर्थिक दबाव इतना ज्यादा है कि इससे रहन-सहन की उनकी सदियों पुरानी ग्रामीण संस्कृति खत्म हो रही है।

गांवों में दादा-दादी बच्चों की देखभाल करते हैं, जबकि मां-बाप खेतों में काम करने के लिए जाते हैं। पर ग्रामीण इलाकों से शहरों में विस्थापित होकर आने वालों के पास काम पर जाते हुए बच्चों को अकेला छोड़कर जाने के सिवा और कोई विकल्प नहीं होता। विनिर्माण क्षेत्र में मजदूरी करने वालों के बच्चे इसी तरह पलते और एक दूसरे का ख्याल रखते हैं।

 

गांव से दिल्ली आने वाले दूसरे लोगों की तुलना में उषा देवी भाग्यशाली है। नरेला में जहां वह काम करती है, उसे रहने के लिए एक बेडरूम का घर तो मिला ही हुआ है, वहां एक संस्था ने मोबाइल क्रैच भी खोल रखा है, जहां सोमवार से शनिवार तक उसके बच्चे, जिनमें लड़कियां भी हैं, आठ घंटे रहते हैं।

 

जहां उन्हें दोपहर में एक घंटा खाने की छुट्टी मिलती है।’ यहां मेरी बेटियों का भविष्य बन रहा है’, उषा देवी कहती है, ‘वे रोज स्कूल जाती हैं। उन्हें वहां खाने को मिलता है। वे पूरी तरह सुरक्षित हैं।’

मोबाइल क्रैच और उसके सहयोगी कंस्ट्रक्शन साइट्स व शहरों की झुग्गी बस्तियों में साठ दिनों तक डे केयर सेंटर चलाते हैं। हालांकि व्यापक जरूरतों की तुलना में यह सुविधा सामान्य ही है, पर निम्न आय वाले परिवारों के बच्चों के पालन-पोषण में यह महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। ये सेंटर छोटे बच्चों के विकास और पोषण का ध्यान रखने के साथ उनके खेलकूद पर भी जोर देते हैं।

मीरा महादेवन ने 1969 में एक और व्यक्ति के साथ मिलकर मोबाइल क्रैच की स्थापना की। दरअसल दिल्ली की कंस्ट्रक्शन साइट्स पर मजदूरों के बच्चों को भटकते देख उन्हें उनकी बेहतरी का ख्याल आया।

 

वहीं देश में विनिर्माण उद्योग के फैलने के साथ-साथ मोबाइल क्रैच का भी विस्तार हुआ-अब तक मजदूरों के करीब साढ़े सात लाख बच्चों को इसका लाभ मिला है। इनमें से अनेक बच्चे विश्वविद्यालयों से उच्च शिक्षा हासिल कर नौकरियों में लगे हैं। यह क्रैच न होता, तो निम्न आय वाले परिवार के बच्चों को न उच्च शिक्षा मिल पाती, न अच्छी नौकरी।

दरअसल ‘जब हम यह पाते हैं कि असंख्य छोटे बच्चे पोषाहार और देखभाल जैसी बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं, तब हममें इनके लिए कुछ करने का ख्याल आता है। सच्चाई यह है कि हर बिल्डर मजदूरों के बच्चों की देखभाल की व्यवस्था नहीं कर सकता। यह कमी विनिर्माण उद्योग में महिला कामगारों को काम करने से रोकती है,’ मोबाइल क्रैच की कार्यकारी निदेशक सुमित्रा मिश्रा कहती हैं।

 

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