आखिरी चरण तक पहुंचा चुनाव, चुनाव आयोग और भी सख्त

इस बार के लोकसभा चुनाव में हर मौसम का स्वाद है, लेकिन इस जीवंत, शोर-शराबे से भरी लोकतांत्रिक कवायद में केंद्रीय निर्वाचन आयोग में एक गिरावट दिख रही है। चुनाव आयोग का यह सांविधानिक कर्तव्य है कि वह रेफरी की तरह काम करे और चुनाव को निष्पक्ष बनाने के लिए हर शक्तियों का इस्तेमाल करे। लेकिन तीन सदस्यीय चुनाव आयोग उदासीन, लापरवाह और मैदान से बाहर के तीसरे अंपायर की तरह दिखता है, जो कभी-कभी गहरी नींद से जाग जाता है या सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर अपनी उपस्थिति का एहसास कराता है।

अब जरा सात चरणों में फैली लंबी चुनाव प्रक्रिया को देखें। निर्वाचन क्षेत्रों का चयन सबसे अधिक व्यक्तिपरक या लगभग राजनीतिक है। उत्तर प्रदेश और बंगाल में सात चरणों में चुनाव हो रहे हैं, जबकि तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में एक ही दिन में चुनाव हुए, आंध्र प्रदेश में तो विधानसभा के चुनाव भी हुए। निश्चित रूप से हिंसा और धांधली के भय पर अवश्य ध्यान दिया जाना चाहिए, लेकिन नहीं भूलना चाहिए कि बंगाल में औसत मतदान 80 फीसदी से अधिक हुआ है।

चुनाव के क्षेत्र में शोध करने वाले कुछ विद्वानों का मानना है कि 2019 के चुनावी कार्यक्रम का लाभ भाजपा को मिला है, क्योंकि इसने पार्टी कार्यकर्ताओं की फौज के माध्यम से भाजपा को बूथ स्तर तक पहुंचने का मौका दिया है। इसने सत्ता विरोधी रुझान खत्म करने में उसकी मदद की, क्योंकि पार्टी कार्यकर्ता ज्यादा इलाकों तक पहुंच सकते हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसे प्रचारक सचमुच देश के हर क्षेत्र को कवर कर सकते हैं। कई शोधकर्ताओं का मानना है कि जो पार्टी सत्ता में होती है, उसे चुनाव की लंबी प्रक्रिया से लाभ मिलता है। इतने लंबे और उबाऊ चुनाव कार्यक्रम के लिए चुनाव आयोग स्वयं दोषी है।

बंगाल में सात चरणों में चुनाव कराने से लाभ कम, हानि ज्यादा हुई और चुनावी हिंसा में कोई कमी नहीं आई। कानून व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी राज्य सरकार की है। केवल अर्धसैनिक बलों को भेजने से समस्या का समाधान नहीं होता है, क्योंकि संघीय प्रणाली के अनुसार केंद्रीय सुरक्षा दल जिला प्रशासन के अधीन होते हैं। यदि केंद्र और राज्य सरकार में टकराव हो, तो राज्य अपनी मनमानी कर सकता है।

चुनाव आयोग की सुस्ती तब दिखी, जब उसने गुजरात के भाजपा प्रमुख को दंडित करते हुए उन्हें 48 घंटे चुनाव प्रचार से प्रतिबंधित किया, जबकि राज्य की 26 लोकसभा सीटों पर चुनाव पहले ही हो चुका था! उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बजरंग बली बनाम हजरत अली का नारा दिया, लेकिन चुनाव आयोग उन्हें प्रचार से प्रतिबंधित करने के बावजूद प्रतिबंध की अवधि के दौरान खबरिया टीवी चैनलों पर हनुमान चालीसा का जाप करते हुए असहाय की तरह देखता रहा।

विजयी योगी ने टीवी चैनलों से कहा, मुझे बजरंग बली का नाम लेने पर दंडित किया गया, पर प्रतिबंध की अवधि के दौरान मैंने उनके नाम का जाप किया। सवाल उठता है कि क्यों चुनाव आयोग ऐसे निर्देश जारी नहीं करता कि प्रतिबंधित नेताओं को प्रतिबंध की अवधि के दौरान टीवी चैनल न दिखाएं!

सिर्फ चुनाव प्रचार ही जहरीला नहीं है, जहां चुनाव आयोग को निराश, असहाय और मूक दर्शक के रूप में देखा जा सकता है। सत्तारूढ़ पार्टी ने कई विपक्षी नेताओं और उनसे सहानुभूति रखने वाले लोगों के घर पर आयकर विभाग की छापेमारी करवाई और राष्ट्रीय सुरक्षा को मुद्दा बनाया, जिसे चुनाव आयोग ने मुद्दा न बनाने के लिए कहा था।

चुनाव आयोग की यह निष्क्रियता 2014 की उसकी सक्रियता के ठीक विपरीत है, जब उसने पश्चिमी घाट में प्राकृतिक गैस मूल्य निर्धारण और पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों को अधिसूचित करने से संबंधित सरकार के कुछ नीतिगत फैसलों को स्थगित करने की सिफारिश की थी। चुनाव आयोग ने तब आदर्श आचार संहिता लागू की थी। चुनाव के पिछले कुछ चरणों पर सरसरी नजर डालें, तो पता चलता है कि आदर्श आचार संहिता का पालन नहीं किया गया। किसी भी दल में आचार संहिता की कोई झलक नहीं दिखी, चाहे वह एनडीए के सहयोगी दल हों, या यूपीए के या क्षेत्रीय दल।

आदर्श आचार संहिता इस धारणा पर आधारित है कि राजनीतिक दल और उम्मीदवार औचित्य, नीति और नैतिकता के मुद्दे को महत्व देंगे। इन उदात्त सिद्धांतों के अभाव में वेस्टमिंस्टर मॉडल राख में मिल जाता है। संसदीय लोकतंत्र का पालना कहे जाने वाले ब्रिटेन में कोई लिखित संविधान नहीं है। वहां राजनीतिक चूक दुर्लभ है और नियम व कानूनों की तुलना में परंपरा का ज्यादा महत्व है। लेकिन भारत का अनुभव इसके ठीक उलट है। कड़े कानूनी आवरण के बिना आदर्श आचार संहिता अव्यावहारिक और दंतहीन है।

भारतीय राजनीतिक दलों, अदालतों, मीडिया और समाज के अन्य वर्गों को चुनावी गड़बड़ी और चुनाव आयोग के कामकाज के पूरे मुद्दे पर फिर से विचार करने, आदर्श आचार संहिता की जरूरत, चुनाव सुधारों और अन्य मुद्दों पर विचार करने की आवश्यकता है। यह एक क्रूर मजाक है कि एक संसदीय चुनाव में (दस लाख से ज्यादा मतदाता वाले) उम्मीदवार के खर्च की सीमा 70 लाख रुपये है, जो कि प्रति मतदाता 70 पैसे बैठता है! वास्तव में इस प्रणाली ने हर उम्मीदवार और निर्वाचित प्रतिनिधि को भ्रष्ट और गैरकानूनी बना दिया है।

चुनाव आयोग को व्यापक, जवाबदेह और पारदर्शी बनाने की जरूरत है। आसानी से प्रभावित होने वाले बाबूओं के बजाय सिविल सोसाइटी के सदस्यों, प्रमुख नागरिकों, न्यायपालिका के सेवानिवृत्त सदस्यों को राज्य एवं केंद्रीय चुनाव निकायों में लैटरल इंट्री दी जानी चाहिए। आदर्श आचार संहिता को भी फिर से दुरुस्त किए जाने और फिर से लिखे जाने की जरूरत है, ताकि इसे लागू किए जाने से पहले सार्वजनिक क्षेत्र में इस पर व्यापक चर्चा हो। अगर चुनाव खर्च की सीमा बढ़ाकर पांच करोड़ रुपये या उससे अधिक करने की आवश्यकता है, तो ऐसा ही हो।

सार्वजनिक फंडिंग से चुनाव कराना एक अन्य मुद्दा है, जिस पर बहस, चर्चा और संभवत: कार्यान्वयन की आवश्यकता है। लेकिन क्या कोई राजनीतिक इच्छाशक्ति है, जो राजनीतिक लाभ से निर्देशित न हो? यही भारतीय लोकतंत्र की असली परीक्षा है।

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