जानिए भगत, सुखदेव और राजगुरु की कुर्बानी का वैलेंनटाइन डे से कनेक्शन का असल सच

हमारे देश के वीर सपूतनई दिल्ली। हर साल जब वैलेंनटाइन डे करीब आने लगता है, तो हमारे देश के वीर सपूत भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की कुर्बानी को लेकर सोशल मीडिया और तमाम जगहों पर सियासत होने लगती है। ये बात तो जगजाहिर है कि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू तीनों ही भारत मां के वीर सपूत थे। जो भारत मां की आजादी के लिए हंसते-हंसते सूली पर चढ़ गये।

लेकिन हमारे अमर वीर सपूतों की शहादत को जब लोग वैलेंटाइन डे से जोड़ने लगते हैं तो हर सच्चा भारतवासी खून के आंसू रोता है। लेकिन हमारे बीच के ही कुछ बुद्धिजीवी जो इस बात का ढ़िंढ़ोरा पीटते रहते हैं और अपनी थोथी देशभक्ति का नमूना सबके सामने पेश करके सभी को यह याद दिलाते फिरते हैं कि शायद हम लोग भारत मां के इन लालों की कुर्बानी को भूल गये हैं।

असल बात तो ये है कि उन लोगों को इस बात की जानकारी ही नहीं है कि इन दोनों में क्या संबंध है वे केवल वेलेंटाइन डे का विरोध करने के लिए वीर शहीदों के नाम का सहारा लेते हैं और इस प्रयास में रहते हैं कि शायद उनके कहे से इतिहास बदल जाए।

हम बात कर रहे हैं उस विवाद की जो आजकल फेसबुक, गूगल प्लस और ट्व‍िटर जैसी तमाम सोशल मीडिया साइट पर छाया हुआ है। ये विवाद खड़ा करने वाले लोग  इन तीनों शहीदों के नाम को वैलेंटाइन से जोड़ने का काम केवल इसलिए करते हैं।  क्योंकि ये लोग जानते हैं कि आज भी इन वीर शहीदों का नाम लेने से युवाओं में जोश भर जाता है।

वहीं अगर इन ऐतिहासिक तथ्यों का असल पहलू देखा जाए तो इतिहास कुछ और ही बंया करता है। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को लाहौर षढ़यंत्र मामले में ट्रिब्यूनल अदालत ने 7 अक्टूबर 1930 को 300 पेज के जजमेंट पर बेस्ड तीनों को फांसी की सजा सुनायी थी। इसके साथ ही उनके 12 साथियों को भी उम्रकैद की सजा सुनाई गयी थी। जिसके बाद 24 मार्च 1931 को फांसी दी जानी थी। लेकिन विशेष आदेश के अंतर्गत उन्हें 23 मार्च 1931 को ही शाम 7:30 बजे फांसी पर लटका दिया गया था।

अब आप सोच रहे होंगे कि इस पूरे मामले का 14 फरवरी से कुछ लेना देना ही नहीं है तो इतना हो हल्ला क्यों? क्या समाज के कुछ अराजक तत्वों ने जबरदस्ती 7 अक्टूबर 1930 को बदलकर 14 फरवरी 1930 कर दिया था?

असल में इस तारीख का महत्व भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की जिंदगी में महत्व बस इतना ही है कि इस दिन प्रिविसी काउंसिल द्वारा अपील खारिज किये जाने के बाद कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष मदन मोहन मालवीय ने 14 फरवरी 1931 को लॉर्ड इरविन के सामने तीनों के फासी के संबंध में दया याचिका दाखिल की थी। जिसे खारिज कर दिया गया था। जिसे आज सोशल साइट्स पर इतना बढ़ा चढ़ा कर दिखाया जा रहा है।

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