देश की जनता चाहती है लागू हो समान नागरिक संहिता

समान नागरिक संहितालखनऊ। देश में समान नागरिक संहिता का मुद्दा बीते कुछ दिनों से गर्माया हुआ है। कानून मंत्री सदानंद गौड़ा ने विधि आयोग को पत्र लिखकर समान नागरिक संहिता के बारे में अध्ययन करके रिपोर्ट देने को कहा है। हालांकि इस बारे में जनता की राय क्या है, यह अभी तक साफ नहीं हुआ था। लेकिन समान नागरिक संहिता पर www.livetoday.online के ऑनलाइन सर्वे के नतीजे चौंकाने वाले आए हैं।

सर्वे के नतीजे

देश की 98 फीसदी जनता चाहती है कि समान नागरिक संहिता लागू की जाए। वहीं, महज सवा फीसदी जनता इसके पक्ष में नहीं है और 0.67 फीसदी लोगों को समान नागरिक संहिता की जानकारी नहीं है। इस बारे में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड नाराजगी जताता रहा है। लॉ बोर्ड का कहना है कि समान नागरिक संहिता उनके शरिया कानून पर बंदिशें लगाती हैं, इसलिए यह देश में लागू नहीं की जानी चाहिए।

समान नागरिक संहिता क्या है

समान नागरिकता कानून का अर्थ भारत के सभी नागरिकों के लिए एक समान नागरिक कानून होना है। समान नागरिक संहिता एक सेक्युलर (पंथनिरपेक्ष) कानून होता है जो सभी धर्मों के लोगों के लिये समान रूप से लागू होता है। अलग-अलग धर्मों के लिये अलग-अलग सिविल कानून न होना ही ‘समान नागरिक संहिता’ की मूल भावना है। समान नागरिक कानून, कानूनों के वैसे समूह से है जो देश के समस्त नागरिकों (चाहे वह किसी धर्म या क्षेत्र से संबंधित हों) पर लागू होता है। यह किसी भी धर्म या जाति के सभी निजी कानूनों से ऊपर होता है। ऐसे कानून विश्व के अधिकतर आधुनिक देशों में लागू हैं।

संविधान के आर्टिकल 44 में क्या है

संविधान के आर्टिकल 44 में इसका जिक्र करते हुए लिखा है कि- सरकार इस बात की कोशिश करेगी कि एक दिन देश भर में यूनिफार्म सिविल कोड लागू हो। यूनिफार्म सिविल कोड लागू करने का मतलब ये है कि शादी, तलाक और जमीन जायदाद के बंंटवारे में सभी धर्मों के लिए एक ही कानून लागू होगा। फिलहाल हर धर्म के लोग इन मामलों का निपटारा अपने पर्सनल लॉ के तहत करते हैं।

मुस्लिमों के लिए इस देश में अलग कानून चलता है, जिसे मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के जरिए लागू किया जाता है। लॉ बोर्ड गैर सरकारी संगठन है। साल 2005 में भारतीय शिया ने सबसे महत्वपूर्ण मुस्लिम संगठन ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ से नाता तोड़ दिया और उन्होंने ऑल इंडिया शिया पर्सनल लॉ बोर्ड के रूप में स्वतंत्र लॉ बोर्ड का गठन किया।

इसलिए है विवाद

मुसलमान महिला को तलाक देने का अधिकार नहीं है, जबकि मुसलमान पुरुष न सिर्फ तीन बार तलाक कह कर तलाक ले सकता है बल्कि एक साथ चार पत्नियां भी रख सकता है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड मुस्लिमो के इस तरह के ही कुरानी या शरियत कानून को संचालित करता है या उनकी रक्षा करता है

शाहबानो तलाक मामला

शाहबानो मध्य प्रदेश के इंदौर की रहने वाली थी। उसके पति ने 1978 में उसे तीन बार तलाक बोल कर तलाक दे दिया और गुजारा भत्ता देने से मना कर दिया। इस वक्त पांच बच्चों की मां शाहबानो की उम्र 62 साल थी। शाहबानो ने इसके विरोध में कोर्ट का दरवाजा खटखटाया 1986 में ये मामला सुप्रीम कोर्ट पंहुचा जिसपर सुप्रीम कोर्ट ने शाहबानो के पति को गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया। न्यायालय ने अपराध दंड संहिता की धारा 125 के अंतर्गत निर्णय लिया जो हर किसी पर लागू होता है चाहे वो किसी भी धर्म, जाति या संप्रदाय का हो।

मुस्लिम विद्वानों ने इसे उनके आंतरिक मामलो में हस्तक्षेप माना। विरोध में कई जगह आन्दोलन भी हुए। उस समय केंद्र की कांग्रेस सरकार पूर्ण बहुमत में थी। राजीव गांधी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को पलटने के लिए 1986 में एक कानून पास किया, जिसने शाह बानो मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय को उलट दिया गया। संसद में मुस्लिम महिला (तालाक अधिकार सरंक्षण) कानून 1986 आसानी से पास हो गया।

मुस्लिम महिला (तालाक अधिकार सरंक्षण) कानून

इस कानून के मुताबिक “हर वह आवेदन जो किसी तालाकशुदा महिला के द्वारा आईपीसी 1973 की धारा 125 के अंतर्गत किसी न्यायालय में इस कानून के लागू होते समय विचाराधीन है, अब इस कानून के अंतर्गत ही निपटाया जायेगा चाहे पहले के कानून में जो भी लिखा हो”। उस वक्त भी कॉमन सिविल कोड की मांग दोहराई गई थी।

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