सती का देह त्याग और पार्वती का जन्म

a11पिता दक्ष प्रजापति के यज्ञ में अपने पति जगत पिता शंकर का अपमान देखकर सती ने अपने शरीर को भष्म कर डाला। सती का भगवान शिव के प्रति जन्म-जन्म का अनुराग था। भगवान से यही वरदान उन्होंने मांगा था। इस तरह सती ने शरीर त्याग के बाद हिमाचल के घर में उनकी कन्या पार्वती के रूप में जन्म लिया। इस प्रसंग को गोस्वामी तुलसीदास ने बहुत ही सुंदर रूप से बताया है और यह संदेश भी दिया है कि किसी को अहंकार नहीं करना चाहिए। दक्ष प्रजापति ने अहंकार किया तो उनको बकरे का सिर धारण करके रहना पड़ा। उनके यज्ञ का भी विध्वंस कर दिया गया।
सती ने जब अपने पिता के यज्ञ में भगवान शंकर का स्थान नहीं देखा तो वह बहुत क्रोधित होकर कहने लगीं-

सुनहु सभासद सकल मुनिंदा, कही-सुनी जिन्ह संकर निंदा।
सो फलु तुरत लहब सब काहू, भली भांति पछिताव पिताहूं।

हे सभासदो और सभी मुनिगण, जिन लोगों ने यहां शिवजी की निंदा की अथवा सुनी है, उन सबको उसका फल तुरंत ही मिलेगा और मेरे पिता दक्ष भी भलीभांति पछताएंगे।

संत संभु श्रीपति अपवादा, सुनिअ जहां तह असि मरजादा।
काटिअ तासु जीभ जो बसाई, श्रवन मूदि नत चलिअ पराई।

अर्थात जहां संत, शिव जी और लक्ष्मी पति भगवान विष्णु की निंदा सुनी जाए, वहां ऐसी मर्यादा है कि यदि अपना वश चले अर्थात सामर्थ्य है तो उस निंदा करने वाले की जीभ काट ली जाए और समर्थ नहीं है तो अपने कान बंद करके वहां से चले जाएं।

जगदातमा महेसु पुरारी, जगत जनक सबके हितकारी।
पिता मंदमति निंदत तेही, दच्छ सुक्र संभव यह देही।
तजिहउं तुरत देह तेहि हेतु, उर धरि चन्द्र मौलि वृष केतू।
अस कहि जोग अगिनि तनु जारा, भयउ सकल मख हाहाकारा।

सती ने कहा भगवान शंकर त्रिपुर दैत्य को मारने वाले सम्पूर्ण जगत की आत्मा है। वे जगत पिता और सबका हित करने वाले हैं। मेरे मंद बुद्धि पिता उनकी निंदा करते हैं और मेरा यह शरीर उन्हीं पिता दक्ष के वीर्य (शुक्र) से उत्पन्न है। इसलिए चन्द्रमा को अपने मस्तक पर धारण करने वाले वृषकेतु शिवजी को हृदय में धारण करके मैं इस शरीर को तुरंत ही त्याग दूंगी। ऐसा कहकर सती ने योगाग्नि में अपना शरीर तुरंत ही जला दिया। इस दृश्य को देखकर सारी यज्ञशाला में हाहाकार मच गया।

सती मरनु सुनि संभु गन, लगे करन मख खीस।
जग्य विधंस विलोकि भृगु रच्छा कीन्ह मुनीस।

सती के मरण को सुनकर शिवजी के गण यज्ञ का विध्वंस करने लगे। यज्ञ विध्वंस होते देखकर भृगु मुनि ने उसकी रक्षा की।

समाचार सब संकर पाए, वीर भदु्र करि कोप पठाए।
जग्य विधंस जाइ तिन्ह कीन्हा, सकल सुरन्ह विधिवत फलु दीन्हा।
भै जग विहित दच्छ गति सोई, जसि कहु संभु विमुख कै होई।
यह इतिहास सकल जग जानी, ताते मैं संक्षेप बखानी।

दक्ष के यज्ञ में सती के जलने का समाचार जब शंकर जी को मिला तो उन्होंने क्रोध करके वीरभद्र को भेजा। वीरभद्र ने वहां जाकर यज्ञ का विध्वंस कर डाला और सब देवताओं को यथोचित दण्ड भी दिया। दक्ष की जगत प्रसिद्ध वही गति हुई जो शिवद्रोही की हुआ करती है। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि यह इतिहास सारा संसार जानता है इसलिए संक्षेप में मैंने इसका वर्णन किया है। राजा दक्ष का सिर काट लिया गया था लेकिन देवताओं की प्रार्थना और ब्रह्मा जी के कहने पर उनके

बकरे का सिर लगाकर जीवित किया गया।
सती मरत हरि सन बरू मांगा, जनम जनम सिव पद अनुरागा।
तेहि कारन हिम गिरि गृह जाई, जनमी पारबती तनुपाई।

सती ने मरते समय भगवान हरि से यह वर मांगा कि मेरा जन्म-जन्म में शिवजी के चरणों में स्नेह बना रहे। इसी कारण

उन्होंने हिमाचल के घर में पार्वती के शरीर से जन्म लिया।
जब तें उमा सैल गृह जाईं, सकल सिद्धि सम्पति तहं छाईं।
जहं तहं मुनिन्ह सुआश्रम कीन्हें, उचित वास हिम भूधर दीन्हें।

जब से सती ने पार्वती के रूप में जन्म लिया तब से वहां सारी सिद्धियां और सम्पत्तियां छा गयीं। ऋषि-मुनियों ने जहां-तहां सुंदर आश्रम भी बना लिये। हिमाचल ने उनको उचित स्थान दिया।

सदा सुमन फल सहित सब, दु्रम नव नाना जाति।
प्रगटीं सुंदर सैल पर मनि आकर बहुभांति।
सरिता सब पुनीत जलु बहहीं, खग मृग मधुप सुखी सब रहहीं।
सहज बयरू सब जीवन्ह त्यागा, गिरि पर सकल करहिं अनुरागा।
सोह सैल गिरिजा गृह तासू, ब्रह्मदिक गावहिं जसु जासू।

पार्वती के जन्म के बाद उस सुंदर पर्वत पर सब नये-नये वृक्ष सदा फूल और फलों से भरे रहने लगे और वहां बहुत तरह की मणियों की खान प्रकट होने लगीं। सारी नदियांे में पवित्र जल बहने लगा और पशु-पक्षी भ्रमर आदि सभी सुखी रहने लगे क्योंकि सभी को सुंदर फल और फूल मिलते थे। जंगल के सभी जीव जो एक दूसरे को खा जाते थे। (स्वाभाविक वैर रखते थे) उन्होंने अपने स्वभाव को बदल दिया और पर्वत पर सभी एक साथ मिलकर रहने लगे। सभी लोग पर्वत पर परस्पर प्रेम से रहने लगे। पार्वती जी के वहां जन्म लेने से पर्वत ऐसा शोभायमान हो रहा था जैसे रामभक्ति को पाकर भक्त शोभायमान होता है। पर्वत राज हिमाचल के घर नित्य नये-नये मंगल उत्सव होते जिनका ब्रह्मा आदि यश गाते हैं।

नारद समाचार सब पाए, कौतुकहीं गिरि गेह सिधाए।
सैल राज बड़ आदर कीन्हा, पद पखारि बर आसनु हीन्हा।
नारि सहित मुनि पद सिरूनावा, चरन सलिल सबु भवनु सिंचावा।
निज सौभाग्य बहुत गिर बरना, सुता बोलि मेली मुनि चरना।

सब कहीं विचरण करने वाले मुनि नारद ने भी यह खबर सुनी तो आश्चर्य के साथ हिमाचल पर्वत पर पहुंचे। पर्वत राज ने उनका बड़ा आदर किया और उनके चरण धोने के बाद जो जल (चरणोदक) बचा, उसे सारे घर में छिड़कवा दिया। हिमाचल ने अपने सौभाग्य का बहुत बखान किया कि आप जैसे महात्मा मेरे घर पधारे।
इसके बाद अपनी बेटी को बुलाकर मुनि के चरणों में बैठाकर आशीर्वाद प्राप्त किया। -क्रमशः (हिफी)

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