संदेह होने पर विवेक से काम लें

d2संदेह या शक होना मनुष्य का स्वभाव है। गोस्वामी तुलसीदास ने इस प्रसंग में बताया है कि देवी-देवताओं में भी संदेह हो जाता है और यह भ्रम परमेश्वर की किसी लीला के चलते होता है। भगवान शिव की अद्र्धांगिनी होने पर भी सती को भ्रम हुआ। भगवान शंकर ने कहा कि अपना भ्रम दूर कर लीजिए लेकिन विवेक से भी काम लीजिएगा। सती ने विवेक से काम नहीं लिया और अपने पति से भी झूठ बोला। यह सब प्रभु राम की लीला के चलते ही हुआ लेकिन सती ने बहुत दुख पाया। भगवान राम को जब शंकर जी ने बिरही की लीला करते देखा और दूर से ही प्रणाम करके चल दिये तो सती के मन में संदेह हुआ लेकिन वह सोचने लगीं कि जगत के स्वामी शंकर की बात मिथ्या (झूठ) तो हो नहीं सकती-

संभु गिरा पुनि मृषा न होई, सिव सर्वग्य जान सबु कोई
अस संसय मन भयउ अपारा, होइ न हृदय प्रबोध प्रचारा
जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी, हर अंतरजामी सब जानी
सुनहि सती तव नारि सुभाऊ, संसय असन धरिअ उर काऊ
सती सोचने लगीं कि शिव जी के बचन भी झूठे नहीं हा ेसकते। सब कोई जानते हैं कि शिव सर्वज्ञ (सब कुछ जानने वाले) हैं। सती के मन में इस प्रकार का अपार संदेह उठ खड़ा हुआ किसी तरह भी उनके हृदय में ज्ञान का प्रादुर्भाव नहीं हो रहा था अर्थात शंकर जी की बात समझ में नहीं आ रही थी सती (भवानी) ने यद्यपि प्रगट रूप से कुछ नहीं कहा लेकिन अन्तर्यामी शिव सब कुछ जान गये। शिव जी बोले हे सती। सुनो तुम्हारा स्त्री स्वभाव है। ऐसा संदेह मन में कभी न रखना चाहिए। यहां पर कुछ लोग यह कह सकते हैं कि गोस्वामी तुलसीदास ने शंका को स्त्री के स्वभाव में शामिल किया है और स्त्रियों का यह एक तरह से अपमान है लेकिन गोस्वामी तुलसीदास ने स्त्री स्वभाव कहा है इसका मतलब कुछ स्वभाव ऐसे होते हैं जो पुरूषों में भी पाये जा सकते हैं जैसे क्रोध पुरुष स्वभाव तो शंका स्त्रीलिंग में है। भगवान शंकर ने सती को समझाते हुए कहा-

जासु कथा कुंभज रिषि गाई, भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई
सोइ मम इष्टदेव रघुवीरा, सेवत जाहि सदा मुनि धीरा

जिनकी कथा का अगस्त्य ऋषि ने गान किया और जिनकी भक्ति मैंने मुनि को सुनाई, ये वही मेरे इष्टदेव श्री रघुवीर जी हैं, जिनकी ज्ञानी, मुनि सेवा किया करते हैं।

मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत विमल मन जेहि ध्यावहीं
कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं
सोइ रामु व्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी
अवतरेउ अपने भगत हित निज तंत्र नित रघुकुलमनी

शिवजी ने कहा-ज्ञानी, मुनि, योगी और सिद्ध निरंतर निर्मल चित से जिनका ध्यान करते हैं तथा वेद पुराण और शास्त्र, नेति-नेति अर्थात इसका अंत नहीं है कहकर जिनकी कीर्ति गाते हैं। उन्हीं सर्व व्यापक और समस्त बह्माण्डों के स्वामी मायापति, नित्य परम स्वतंत्र स्वभाव, ब्रह्म रूप भगवान श्रीराम ने अपने भक्तों के हित के लिए अपनी इच्छा से रघुकुल की मणि अर्थात रघुवंश में अवतार लिया है।

लाग न उर उपदेसु, जदपि कहेउ सिवँ बार बहु
बोले बिहसिं महेस, हरि माया बलु जानि जियँ

यद्यपि शिवजी ने बहुत बार समझाया लेकिन सती जी के हृदय में उनका उपदेश नहीं बैठा अर्थात सती जी की समझ में नहीं आया तब महादेव जी ने इसे भी भगवान की माया का बल जानकर मुस्कराते हुए सती से कहा-

जौं तुम्हरे मन अति संदेहू, तौ किन जाहि परीछा लेहू
तब लगि बैठ अहउं बट छाहीं, जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाही
जैसे जाइ मोह भ्रम भारी, करेहु सो जतनु विवेक विचारी
सती चलीं सिव आयसु पाई, करहिं विचारू करौं का भाई

तुम्हारे मन में जो बहुत संदेह है तो तुम जाकर परीक्षा क्यों नहीं लेतीं। जब तक तुम मेरे पास लौटकर आओगी, तब तक मैं इस वट वृक्ष की छांव में बैठा हूं लेकिन जिस प्रकार तुम्हारा यह अज्ञान जनित भ्रम दूर हो तुम विवेकपूर्ण सोच-समझ कर वही कार्य करना। शिव जी की आज्ञा पाकर सती चलीं और सोचने लगीं कि किस प्रकार से परीक्षा ली जाए।

इहां संभु असमन अनुमाना, दच्छ सुता कहुं नहिं कल्याना
मोरेहु कहें न संसय जाहीं, विधि विपरीत भलाई नाहीं

इधर शिवजी ने मन में ऐसा अनुमान किया कि दक्ष कन्या सती का कल्याण नहीं दिख रहा है क्योंकि जब मेरे समझाने से भी संदेह दूर नहीं होता तब ऐसा लगता है कि विधि (विधाता) ही उनके विपरीत हैं इसलिए सती का कुशल नहीं है।

होइहि सोइ जो राम रचि राखा,
को करि तर्क बढ़ावै साखा
अस कहि लगे जपन हरिनामा,
गईं सती जहं प्रभु सुख धामा

भगवान शंकर सोचने लगे कि जो कुछ प्रभु राम ने तय कर रखा है वही होगा, तर्क करके कौन इसकी शाखा अर्थात विस्तार करे। मन में ऐसा सोच कर भगवान शंकर श्री हरि का नाम जपने लगे और सती वहां पहुंच गयीं। जहां सुख के धाम श्री रामचन्द्र जी थे।

पुनि पुनि हृदयं विचारू करि धरि सीता कर रूप
आगे होइ चलि पंथ तेहिं जेहिं आवत नर भूप

सती ने बार-बार मन में विचार करके सीता का रूप धारण किया और उस मार्ग की ओर आगे होकर चलने लगीं जिस पर राम और लक्ष्मण आ रहे थे। सती ने सीता का रूप इसलिए धारण किया कि ये राजकुमार सीता को ही खोज रहे हैं और मुझे सीता के रूप में देखकर खुश हो जाएंगे। सती उन्हें नृप बालक ही समझ रही थीं।

लछिमन दीख उमा कृत वेषा, चकित भए भ्रम हृदय विसेषा
कहि न सकत कछु अति गंभीरा, प्रभु प्रभाउ जानत मति धीरा
सती कपटु जानेउ सुर स्वामी, सब दरसी सब अंतरजामी
सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना, सोइ सरबग्य रामु भगवाना

सती का यह बनावटी रूप देखकर लक्ष्मण जी चकित हो गये और उनके हृदय में भी भ्रम हुआ। वे बहुत गंभीर हो गये लेकिन कुछ कह नहीं सके। धीर बुद्धि वाले लक्ष्मण जी प्रभु राम का स्वभाव जानते थे कि यह भी कोई उनकी लीला है। सब कुछ देखने वाले और सबके हृदय को जानने वाले देवताओं के स्वामी रामचन्द्र जी
सती के कपट को जान गये। जिनके स्मरण मात्र से अज्ञान का नाश हो जाता है वही सर्वज्ञ भगवान श्री रामचन्द्र जी हैं।

सती कीन्ह चह तहंहु दुराऊ, देखहु नारि सुभाव प्रभाऊ
निज माया बलु हृदय बखानी, बोले बिहसिं रामु मृदु बानी
सती जी ऐसे भगवान के सामने
भी छिपाव कर रहीं थीं अपनी माया
के बल को हृदय में बखान कर
श्रीराम चन्द्र जी तब कोमल वाणी में बोले।

-क्रमश: (हिफी)

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