मप्र : राज्यसभा चुनाव ने शिवराज को धर्मसंकट में डाला

शिवराज सिंह चौहानभोपाल। सियासत में जीत हर दल और नेता के लिए अहम होती है, मगर ऐसे मौके कम ही आते हैं, जब किसी दल के मुख्यमंत्री के लिए विरोधी दल के नेता के खिलाफ अपने ही दल के सदस्य की उम्मीदवारी धर्मसंकट में डालने वाली हो। यह स्थिति चाहे किसी और के लिए बनी हो या नहीं, परंतु मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के लिए जरूर बन गई है।

शिवराज सिंह चौहान पर संकट के बादल

राज्य से राज्यसभा के लिए तीन सदस्यों का चुनाव होना है, मगर मैदान में चार उम्मीदवार हैं, लिहाजा 11 जून को मतदान होगा, इसमें भाजपा के दो उम्मीदवारों अनिल माधव दवे और एम. जे. अकबर का चुना जाना तय है, क्योंकि जीत के लिए जरूरी विधायक उनके पास हैं, वहीं पार्टी के पदाधिकारी विनोद गोटिया को बतौर निर्दलीय उम्मीदवार बनाकर कांग्रेस के उम्मीदवार विवेक तन्खा की राह में कांटे बिछाने की कोशिश की गई है।

राज्य में भाजपा के कई नेताओं से तन्खा की नजदीकी के चलते पार्टी की राज्य इकाई से लेकर मुख्यमंत्री चौहान तक तीसरा उम्मीदवार उतारने के पक्ष में नहीं थे, इतना ही नहीं दो भाजपा नेताओं ने तो निर्दलीय चुनाव लड़ने से ही इंकार कर दिया, मगर हाईकमान के निर्देश पर गोटिया को निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर मैदान में उतारना पड़ा है।

वरिष्ठ पत्रकार एल.एस. हरदेनिया कहते हैं कि बीते 10 सालों में पहली बार ऐसा हुआ है, जब मुख्यमंत्री चौहान की इच्छा को नजरअंदाज कर राज्यसभा में तीसरे उम्मीदवार को चुनाव मैदान में उतारा गया हो। पिछले राज्यसभा चुनाव में तो चौहान ने तन्खा को भाजपा का उम्मीदवार बनाने की कोशिश की थी, मगर सफल नहीं हुए थे। तन्खा की चौहान से करीबी किसी से छुपी हुई नहीं है।

हरदेनिया का कहना है कि राज्य में अब तक वही हुआ है जो चौहान ने चाहा है। चाहे मंत्री बनाने की बात हो, निगम व मंडलों की नियुक्तियां हो या पार्टी का प्रदेशाध्यक्ष के चयन का मामला, सभी फैसले चौहान की मर्जी की मुताबिक ही हुए हैं। राज्यसभा में तीसरे उम्मीदवार को मैदान में उतारा जाना चौहान को अस्थिर करने का भी संकेत दे रहा है। इस चुनाव में तन्खा की हार या जीत दोनों ही चौहान पर असर डालेंगी, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि तन्खा जीते तो पार्टी की इच्छा हारेगी और गोटिया जीते तो मित्र हारेगा।

वहीं वरिष्ठ पत्रकार गिरिजा शंकर का मानना है कि भाजपा द्वारा मध्य प्रदेश की तरह अन्य स्थानों पर भी निर्दलीय उम्मीदवार उतारने का प्रयोग किया गया है। इसके उसे तीन लाभ हैं। विधायकों की खरीद-फरोख्त होती है तो उस पर आरोप नहीं लगेगा, हार से पार्टी के मनोबल पर कोई असर नहीं हेागा और जो विधायक अपने दल के उम्मीदवार को वोट नहीं करना चाहेंगे वे निर्दलीय को वोट कर सकेंगे।

उनका कहना है कि अगर सिर्फ मध्य प्रदेश में निर्दलीय उम्मीदवार को उतारा गया होता तो जरूर चौहान पर असर होता, मगर निर्दलीय उम्मीदवार का फैसला राज्य स्तर पर नहीं केंद्रीय स्तर पर हुआ है, इसलिए निर्दलीय को जिताने की सारी रणनीति केंद्रीय स्तर पर ही बनाई जा रही है। लिहाजा चौहान पर तीसरे उम्मीदवार की हार-जीत का कोई असर नहीं पड़ेगा।

राजनीति के जानकारों की मानें तो तन्खा व चौहान दोनों के रिश्ते मधुर हैं, यह बात मौके बेमौके पर सामने आती भी रही हैं। यही कारण है कि पिछले राज्यसभा के चुनाव में चौहान ने तन्खा को उम्मीदवार बनाने का हरसंभव प्रयास किया था, मगर पार्टी की सदस्यता के मुद्दे पर मामला गड़बड़ा गया था।

ज्ञात हो कि राज्य से राज्यसभा के तीन सदस्यों का निर्वाचन होना है, एक उम्मीदवार की जीत के लिए 58 विधायकों का समर्थन आवश्यक है। राज्य विधानसभा में कुल 230 विधायक है, इनमें से भाजपा के 166 विधायक (विधानसभाध्यक्ष सहित) हैं।

इस तरह भाजपा के दो सदस्यों अनिल माधव दवे व एम जे अकबर की जीत तय है और तीसरी सीट जीतने के लिए उसे आठ विधायकों के समर्थन की जरुरत है, वहीं कांग्रेस के पास 57 विधायक है और उसे एक वोट की जरुरत है। बसपा ने तन्खा को समर्थन देकर उनकी स्थिति को और मजबूत कर दिया है, मगर चिंता अब भी बनी हुई है क्योंकि कांग्रेस के दो विधायक बीमार है और एक जेल में है।

भाजपा को राज्यसभा की तीसरी सीट जीतना है तो उसे कांग्रेस में सेंध लगाना आवश्यक होगी, इसके लिए भाजपा द्वारा कांग्रेस की कमजोर कड़ी को खोजा भी जा रहा है। कांग्रेस के कुछ विधायक उसके संपर्क में भी हैं।

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