डिजिटल द्रोणाचार्य को गुरु मान, शतरंज का एकलव्य बना सेल्वा

शतरंज नई दिल्ली। शतरंज की बिसात को समझना हर किसी के बस की बात नहीं होती। यह वह खेल है, जिसके लिए आपको दिमागी कसरत करनी पड़ती है। एक बाजी जीतने के लिए कई बाजियां हारनी पड़ती हैं और फिर सीख के आगे बढ़ना पड़ता है।

इसके लिए लेकिन सही मार्गदर्शन उतना ही जरूरी है, जितना जिंदा रहने के लिए सांस लेना। ताज्जुब तब होता है जब नन्ही उम्र का एक बच्चा बिना प्रशिक्षक के इस खेल में महारत हासिल कर ले और अपने से ज्यादा उम्र के खिलाड़ियों को मिनटों में मात दे दे।

तमिलनाडु के साथमंगलम गांव में एक ऐसा ही बच्चा है, जिसका कोई प्रशिक्षक नहीं है लेकिन यह बच्चा अपने गांव में शतंरज का उस्ताद कहा जाता है। असल में इस नन्हें शतरंज मास्टर नौ साल के सेल्वागणपति (सेल्वा) को शतंज का उस्ताद कम्प्यूटर ने बनाया।

सुनने में अजीब लगता है लेकिन हकीकत को नकारा नहीं जा सकता। सेल्वा घंटों कम्प्यूटर के सामने बैठ शतंरज की कई बाजियों पर गौर करता है और दिमाग में इस तरह बैठा लेते हैं कि बिसात पर चले तो विपक्षी चित्त।

सेल्वा की कहानी कंप्यूटर उत्पाद बनाने वाली कंपनी इंटेल ने अपनी पत्रिका ‘एक कदम उन्नती की ओर’ में प्रकाशित की है, जिसे इंडियन स्कूल ऑफ बिजनस (आईएसबी) ने अनुलेखित किया है। इस रिपोर्ट को कांतर आईएमआरबी ने तैयार किया है।

पत्रिका में प्रकाशित सेल्वा की कहानी के मुताबिक, जिस गांव में सेल्वा रहते हैं, उसमें कुल 40 घर हैं जिसमें से आधे से ज्यादा कच्चे हैं। गांव से 30 किलोमीटर दूर काराईकुडी नाम का शहर है, जिसके लिए सिर्फ एक ही बस चलती है। सेल्वा इस पिछड़े और छोटे से गांव के प्राथमिक स्कूल में पढ़ता है जिसे भारती फाउंडेशन नाम की संस्था चलाती है।

संस्था का मानना है कि सीखने के लिए कुछ न कुछ अलग करते रहना जरूरी है और इसी उद्देश्य से इसने पाठ्यक्रम में शतंरज और कैरम जैसे खेलों को शामिल किया है।

तमिलनाडु का शतरंज का अच्छा खासा इतिहास है। इस प्रदेश ने विश्वनाथन आनंद, कृष्णनन शशिकिरन जैसे खिलाड़ी दिए हैं। लेकिन राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर खेलने के लिए इस खेल को सीखने की जरूरत होती है जोकि काफी खर्चीला होता है और ऐसे गांव में शतरंज जैसे खेल का प्रशिक्षक टेढ़ी खीर है।

बच्चों को लेकिन आगे बढ़ाने की स्कूल की प्रतिबद्धता ने उन्हें मौके दिए। स्कूल हेडमास्टर राजकमल जोकि खुद शतरंज खेलते हैं, ने बच्चों को शतंरज के मोहरों से अवगत कराया और इस तरह सेल्वा और उनके साथियों ने शतरंज को जाना।

राजकमल ने बच्चों को निखारने के लिए कोचिंग की नई तकनीकों को खोजना शुरू किया और इसी दौरान उन्हें स्कूल के लैपटॉप में शतरंज का खेल दिखा, जिसे उन्होंने बच्चों के सामने रखा। सेल्वा को कम्प्यूटर भाने लगा और वह इस पर घंटों समय बिताने लगा।

सेल्वा पूरे स्कूल में पहला ऐसा बच्चा था, जिसने कम्प्यूटर में खेल के उच्च स्तर को पार किया। हर जीत के साथ सेल्वा इस खेल में आगे बढ़ता चला गया और एक आत्मविश्वासी खिलाड़ी बन गया।

राजकमल ने उसकी प्रतिभा को पहचाना और कम्प्यूटर में खेल के स्तर को और बढ़ा दिया ताकि सेल्वा बेहतर कर सके। सेल्वा हार न मानने वाला था। दोस्तों के साथ जीतने के साथ ही उसने कम्प्यूटर को भी मात देना शुरू कर दिया। कम्पयूटर की चुनौतियों ने उसके खेल को और निखारा।

घंटों कम्प्यटूर पर बैठ शतरंज सीखने का फल सेल्वा को जिला स्तर की शतरंज चैम्पियनशिप में विजेता के रूप में मिला। इस चैम्पियनशिप में उसने अपने से बड़ों को हराया। सेल्वा अब पूरे गांव में प्रेरणास्त्रोत बन गया था।

हर मां-बाप की तरह सेल्वा के मां-बाप भी अपने बच्चे की सफलता से खुश थे। उसकी मां इंद्रा जो खुद भी खिलाड़ी रह चुकी हैं ने घर में कम्प्यूटर लाने के के लिए पैसा जोड़ना शुरू कर दिए हैं ताकि उनका बच्चा घर में भी अभ्यास कर सके। कभी कम्प्यूटर न देखने वाली इंद्रा को अपने बच्चे की काबिलियत पर पूरा भरोसा है।

सेल्वा के परिवार को उम्मीद है कि उनका बच्चा एक दिन राष्ट्रीय स्तर पर खेलेगा और ग्रैंड मास्टर बनेगा। सेल्वा की सपना भी अपने परिवार से इतर नहीं है। उसकी नजरों में ग्रैंड मास्टर का ख्वाब है।

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