प्रेरक-प्रसंग: परिश्रम का ज्ञान 

 

बुद्ध की सभा में हर तरह के लोग आते थे। उनमें भोले ग्रामीण, विद्यार्थी, महिलाएं, नगरसेठ भी होते थे। सभा में सबको समान रूप से मान-सम्मान मिलता था और बुद्ध उन्हें उनके स्तर के अनुरूप ही शिक्षा देते थे। अपने प्रभावशाली तरीके से वह भक्तों के हृदय में उतर जाते थे।

परिश्रम का ज्ञान 

एक बार एक खानदानी सेठ उनकी सभा में पधारे और धर्म चर्चा में लीन हो गए। प्रवचन सुनने के पश्चात उन्होंने बुद्ध को अपने घर पर भोजन के लिए आमंत्रित किया। बुद्ध ने उनका आग्रह स्वीकार कर लिया तो उनके शिष्यों ने उन्हें बता दिया कि तथागत केवल ताजा भोजन ही ग्रहण करते हैं। बस, और कोई विशेष आग्रह नहीं है। सेठ ने खुशी-खुशी उनकी यह बात मान ली।

नियत समय पर बुद्ध अन्य भिक्षुओं के साथ सेठ जी की हवेली पर पधारे। उनके चरण धोने और आसन देने के पश्चात सेठ ने उन्हें बताया, ‘प्रभु, हमारी यह हवेली और जमींदारी पुश्त दर पुश्त चली आ रही है। हमें कुछ करना ही नहीं पड़ता। पुरखों ने ही हमारे लिए सारा इंतजाम कर दिया है। उनका किया-धरा ही इतना है कि हमारी अगली सात पुश्तों को भी चिंता करने की जरूरत नहीं होगी।’

इस बातचीत के थोड़ी देर बाद सबके लिए भोजन परोसा गया। बुद्ध ने भोजन सामने आते ही कहा, ‘वत्स, आपको बताया गया था कि हम केवल ताजा भोजन ही ग्रहण करते हैं। हम यह बासी भोजन नहीं स्वीकार सकते।’ सेठ जी बोले, ‘प्रभु, कई घंटों के परिश्रम से यह भोजन अभी बनाया गया है। इसे आप बासी क्यों बता रहे हैं?’ बुद्ध गंभीरता से बोले, ‘क्योंकि इसमें तुम्हारे परिश्रम से अर्जित कुछ नहीं, तुम्हारे पुरखों का कमाया हुआ धन लगा है। जिस दिन तुम्हारी कमाई से भोजन बनेगा, वह ताजा भोजन कहलाएगा। उस दिन मैं खुशी-खुशी आपका भोजन ग्रहण करूंगा।’ यह कहकर बुद्ध बिना भोजन किए ही वहां से उठ गए।

 

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