पाकिस्तान से भागकर आये आये हिन्दू रिफ्यूजी रहते हैं इन हालातों में !…

दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले बच्चे जानते हैं. सस्ता और अच्छा खाना कहां मिलेगा. कम दाम में लेटेस्ट कपड़े कहां मिलेंगे. अलग-अलग तरह का कुजीन कहां मिलेगा. ख़ास तौर पर नार्थ कैम्पस में. कुछ जगहें जो कॉमन होंगी, वो हैं कमला नगर, हडसन लेन, मलकागंज. इन्हीं जगहों में से एक नाम है मजनू का टीला. यहां टिबेटन मार्केट है. मोमोज मशहूर हैं इधर के.

टिबेटन मार्किट में आपको अक्सर स्टूडेंट घूमते हुए दिख जाएंगे. लेकिन यहां से ही कुछ दूरी पर लगभग 120 परिवार ऐसे हालात में रह रहे हैं, जिनके बारे में सोचकर झुरझुरी सी चढ़ जाती है. ये परिवार रिफ्यूजी हैं.

रिफ्यूजियों की हालत कमोबेश हर देश में एक जैसी ही है. एक वतन छोड़ कर आए, वहां से दुरदुराए गए, हालात के मारे लोग, अपने लिए ज़मीन का एक कोना ढूंढते हुए. लेकिन इन रिफ्यूजी परिवारों की कहानी बहुत कम लोग जानते हैं.

शायद इसलिए क्योंकि कई रिफ्यूजी समूहों की तरह ये समूह एक झोंक में किसी देश या जगह से उठकर नहीं आया. धीरे धीरे, कुछ कुछ परिवारों के रूप में, ये रिफ्यूजी भारत आते रहे. और अब मजनू के टीले के आस-पास की जगहों पर बस गए हैं. कुछ हरिद्वार में भी हैं.

ये पाकिस्तान के वो हिन्दू हैं, जो भारत आए और वापस नहीं लौटे. पाकिस्तान छोड़ आए. हम पहुंचे, उनसे जानने कि आखिर क्यों आए वो छोड़कर अपना घर और कारोबार. क्या था ऐसा पाकिस्तान में जिसने इन्हें भाग निकलने पर मजबूर कर दिया.

टीले के पास लाइन से कुछ परचून की दुकानें हैं. इनमें से आखिरी दूकान ‘परधान (प्रधान) जी’ की है. छोटा-मोटा सामान मिल जाता है इन पर. दुकान के कोने में खड़े हुए धूप तो पहुंचती नहीं, लेकिन गर्म हवा जरूर घेरे रहती है. दुकान तो उन्हें क्या ही कहें, उन्हें गुमटी कहना ज्यादा सही होगा.

परधान जी वाली गुमटी में उनकी पत्नी बीरा देवी बैठी हैं. ‘परधान जी’ बाहर कट रहे पेड़ों से गिरी लकड़ी उठाने निकले हुए हैं. जब तक बीरा देवी दुकान संभालती हैं, तब तक ‘परधान जी’ कंधे पर कटी हुई मोटी-मोटी टहनियां लाकर कोने में रख देते हैं. हाथ झाड़ते हुए कहते, ‘गैस नहीं है न. चूल्हा जलाने के काम आता है’. इन्हीं दुकानों के पीछे बसा हुआ है ये रिफ्यूजी कैम्प.

 

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कुछ घर पक्के बने हुए हैं. कुछ में सिर्फ ईंटें लगी है. कुछ टिन शेड वगैरह खड़े कर बना लिए गए हैं. घरों के बाहर बुनी हुई खटिया रखी हुई हैं. बच्चे इधर-उधर भागते नज़र आते हैं. उस तरफ से घुसते ही बाउंड्री बनाकर चंद टॉयलेट घेर दिए गए हैं. बाउंड्री की बाहरी ओर लिखा है, ‘सिर्फ महिलाओं के लिए’.

यहां से अन्दर जाकर आप कैम्प में पहुंच जाएंगे. बीरा देवी बताती हुई चलती हैं

‘लैट की बहुत दिक्कत है. औरतें ना जातीं काम करने बाहर. घर भी देखना होता. मर्द चले जाते. बच्चे स्कूल जाते हैं. खुद भी बाहर काम करने चली गईं तो घर कौन देखेगा. पैर से चलने वाली सिलाई मशीन भी मिल जाती तो घर बैठे-बैठे कुछ काम हो जाता’.

बीरा देवी से तस्वीर की इजाज़त मांगने पर हल्का सा मुस्कुराईं, कहा ले लीजिए पर कुछ होता जाता इधर तब तो. तस्वीर: ऑडनारी

आगे बढ़ने पर सफ़ेद साड़ी में एक अम्मां जी मिलीं. नाम लछमी बताया. कहा, बेटा ताराचंद यहां आया, उसके साथ हम भी आ गए. उनसे बातचीत करते करते कुछ बच्चे भी आ जाते हैं साथ में. कुछ दस-पंद्रह साल की लड़कियां भी. बतातीं,

‘स्कूल में कलमा पढ़ने को कहते थे. हम नहीं पढ़ते थे तो हमें निकाल दिया’.

‘आधार कार्ड की परमिशन नहीं थी, फिर भी हमने बनवाया क्योंकि उसके बिना स्कूल में एडमिशन नहीं मिलता’.

यहां रिफ्यूजियों का आना 2011 में शुरू हुआ. कुछ कहते हैं कुंभ के स्नान के लिए ये लोग आये थे. फिर वापस नहीं गए. इसके बाद भी हरिद्वार का वीजा लगवा कर गंगा स्नान के लिए छिटपुट संख्या में परिवार आते रहे. हरिद्वार में भी तकरीबन 50 से ऊपर परिवार हैं, ऐसा बताया गया.

बातचीत में एक दूसरी महिला भी आईं. बताया, इकलौता बेटा था उनका. उसके अस्थि विसर्जन के लिए हरिद्वार आई थीं. फिर लौट कर नहीं गईं.

फराहनाज़ इस्पाहानी लेखिका हैं. पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी की मीडिया एडवाइजर रह चुकी हैं. उनकी किताब है, Purifying the Land of the Pure: Pakistan’s Religious Minorities (पाक धरती का शुद्धिकरण: पाकिस्तान के धार्मिक अल्पसंख्यक). इसमें वो बताती हैं कि जब पाकिस्तान बना था, तब वहां के अल्पसंख्यक पूरी आबादी का 23 फीसद थे.

आज ये घटकर सिर्फ तीन से चार फीसद रह गए हैं. फराहनाज़ ने इस किताब में लिखा है कि जनरल ज़िया उल हक ने शिया-अहमदी-हिन्दू-ईसाई आबादी को टारगेट करने के लिए एक मिलिटेंट गुप बनाया. एक इंटरव्यू में फराहनाज़ बताती हैं,

“सिपह-ए-साहबा का इकलौता काम शिया मुसलमानों को दिक करना (परेशान करना) था. ये पहला ऐसा समूह था जिसे उस समय की पाकिस्तानी सरकार ने खुले तौर पर हथियारों से लैस किया, ट्रेन किया. कुछ समूह ऐसे हैं जो कुछ सीजन में बॉर्डर पार चले जाते हैं और कुछ में यहां रहते हैं, घर पर. पाकिस्तान को और पाक करते हुए, फिर चाहे वो अहमदी इबादतखाने उड़ाना हो, या मास (Mass) के समय ईसाई श्रद्धालुओं को उड़ाना हो, या शियाओं के इबादत की जगह को बर्बाद करना हो”.

इस पूरे फेनोमेनन/घटनाक्रम को फराहनाज़ ने ‘Drip Drip Genocide’ का नाम दिया है. यानी बूंद-बूंद नरसंहार. इसके बारे में वो कहती हैं,

“ये एक दिन में नहीं होता. चंद महीनों में भी नहीं होता. थोड़ा-थोड़ा करके, कानून और संस्थान और अफसरशाही और सजा के प्रावधान के जरिए, स्कूली किताबें जो दूसरे समुदायों को बदनाम करती हैं, जब तक आप उस बिंदु तक पहुंच जाते हो जहां इस तरह का जिहादी कल्चर हर जगह फ़ैल चुका है”.

 

 

मजनू के टीले के पास रहने वाले ये पाकिस्तानी हिन्दू वापस नहीं जाना चाहते. कहते हैं, वहां खेतों में काम करने के पैसे नहीं मिलते थे ढंग के. हमारी गाएं खोलकर ले जाते. हमारी बेटी-बहुओं को छेड़ा जाता है. इसलिए वहां नहीं टिक सकते हम. यहां उनको अर्जी लगाने पर पांच साल का वीजा मिल जाता है. लेकिन उन्हें नागरिकता चाहिए. भारत में बसने का हक़ मांग रहे वो. उनके आधार कार्ड बनने शुरू हो गए हैं. लेकिन सिर्फ इससे उनकी परेशानियां हल होंगी, ये कहना दूर की कौड़ी है. नेताओं को लेकर भी कोई ख़ास उत्साह या आशा हो इनके मन में, दिखाई नहीं पड़ता. ‘परधान जी’ ने कहा, अलका लाम्बा आई थी. कहती तुम यहां क्यों हो, वापस जाओ. यहां न रहो. गरीब की हाय लगेगी तो समझ आएगा. पुलिस हमारे ठेले-खोमचे हटवा देती है. क्या करें हम, कहां जाएंगे?

 

 

इतने सालों से अर्जियां लगाते रहने का फायदा ये हुआ है कि पीने के पानी की दिक्कत नहीं है. लेकिन चंद सोलर लाइटों और लकड़ी के चूल्हों के सहारे काम चलाने में परेशानी तो होनी ही है. मच्छरों की वजह से बच्चे बीमार पड़ रहे हैं. NGO के नाम पर लोग  आते हैं, फोटो खींचकर चले जाते. कई बार ऐसा हुआ कि यहां की तस्वीरें डाल कर पेटीएम पर पैसे ले लिए गए लोगों से मदद के नाम पर. इन तक नहीं पहुंचे. इसलिए अब यहां के लोग भी झिझकते हैं किसी से बात करने में. हरिद्वार में पाकिस्तानी हिन्दुओं का आना बादस्तूर जारी है. वहां से वो कहां जाएंगे, उन्हें खुद भी नहीं मालूम. लेकिन पिछले 8 सालों से यहां बस रही रिफ्यूजी कॉलोनी अपनी पहचान के लिए अभी भी कोशिशें जारी रखे हुए हैं.

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