निर्जला एकादशी व्रत करने से मिलता है 24 एकादशियों का फल

निर्जला एकादशीहिंदू धर्म में एकादशी का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। हर साल चौबीस एकादशियाँ होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर 26 हो जाती है। ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को निर्जला एकादशी कहते हैं। इस एकादशी को भीम एकादशी भी कहा जाता है। इस व्रत में पानी पीना वर्जित है, इसलिये इसे निर्जला एकादशी कहते हैं। इस दिन सुबह से शाम तक दान-पुण्य का दौर चलता है। निर्जला एकादशी के मौके पर लक्ष्मीनाथ मंदिर परिसर सहित शहर के सभी मंदिरों में धार्मिक अनुष्ठान होते हैं तथा निर्जला एकादशी पर धर्मार्थियों द्वारा जगह-जगह सेवा शिविर लगाये जाते हैं, जिसमें शीतल पेयजल, छाछ, नीबू शिकंजी, फल आदि से लोगों को मनुहार करते है।

निर्जला एकादशी से लाभ

जो श्रद्धालु साल की सभी चौबीस एकादशियों का उपवास करने में सक्षम नहीं हैं, उन्हें केवल निर्जला एकादशी का उपवास करना चाहिए, क्योंकि इस एकादशी का उपवास करने से दूसरी सभी एकादशियों का लाभ मिल जाता है।

निर्जला एकादशी से सम्बन्धित पौराणिक कथा के कारण इसे पाण्डव एकादशी और भीमसेनी या भीम एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। पाण्डवों में दूसरा भाई भीमसेन खाने-पीने का अत्यधिक शौक़ीन था और अपनी भूख को नियन्त्रित करने में सक्षम नहीं था इसी कारण वह एकादशी व्रत को नहीं कर पाता था। भीम के अलावा बाकि पाण्डव भाई और द्रौपदी साल की सभी एकादशी व्रतों को पूरी श्रद्धा भक्ति से किया करते थे। भीमसेन अपनी इस लाचारी और कमजोरी को लेकर परेशान था। भीमसेन को लगता था कि वह एकादशी व्रत न करके भगवान विष्णु का अनादर कर रहा है। इस दुविधा से उभरने के लिए भीमसेन महर्षि व्यास के पास गया, तब महर्षि व्यास ने भीमसेन को साल में एक बार निर्जला एकादशी व्रत को करने की सलाह दी और कहा कि निर्जला एकादशी साल की चौबीस एकादशियों के तुल्य है। इसी पौराणिक कथा के बाद निर्जला एकादशी भीमसेनी एकादशी और पाण्डव एकादशी के नाम से प्रसिद्ध हो गयी।

निर्जला एकादशी करने का समय

निर्जला एकादशी का व्रत ज्येष्ठ माह में शुक्ल पक्ष के दौरान किया जाता है। अंग्रेजी कैलेण्डर के अनुसार निर्जला एकादशी का व्रत मई अथवा जून के महीने में होता है। साधारणतः निर्जला एकादशी का व्रत गँगा दशहरे के अगले दिन पड़ता है, परन्तु कभी-कभी साल में गँगा दशहरा और निर्जला एकादशी दोनों एक ही दिन पड़ जाते हैं।

एकादशी के व्रत को समाप्त करने को पारणा कहते हैं। एकादशी व्रत के अगले दिन सूर्योदय के बाद पारणा किया जाता है। एकादशी व्रत का पारणा द्वादशी तिथि समाप्त होने से पहले करना अति आवश्यक है। यदि द्वादशी तिथि सूर्योदय से पहले समाप्त हो गयी हो तो एकादशी व्रत का पारणा सूर्योदय के बाद ही होता है। द्वादशी तिथि के भीतर पारणा न करना पाप करने के समान होता है।

एकादशी व्रत का पारणा हरि वासर के दौरान भी नहीं करना चाहिए। जो श्रद्धालु व्रत कर रहे हैं, उन्हें व्रत तोड़ने से पहले हरि वासर समाप्त होने की प्रतीक्षा करनी चाहिए। हरि वासर द्वादशी तिथि की पहली एक चौथाई अवधि है। व्रत तोड़ने के लिए सबसे उपयुक्त समय प्रातः काल होता है। व्रत करने वाले श्रद्धालुओं को मध्यान्ह के दौरान व्रत तोड़ने से बचना चाहिए। कुछ कारणों की वजह से अगर कोई प्रातः काल पारणा करने में सक्षम नहीं है, तो उसे मध्यान्ह के बाद पारणा करना चाहिए।

कभी-कभी एकादशी व्रत लगातार दो दिनों के लिए हो जाता है। जब एकादशी व्रत दो दिन होता है, तब स्मार्थ-परिवारजनों को पहले दिन एकादशी व्रत करना चाहिए। दूसरे दिन वाली एकादशी को दूजी एकादशी कहते हैं। सन्यासियों, विधवाओं और मोक्ष प्राप्ति के इच्छुक श्रद्धालुओं को दूजी एकादशी के दिन व्रत करना चाहिए। जब-जब एकादशी व्रत दो दिन होता है तब-तब दूजी एकादशी और वैष्णव एकादशी एक ही दिन होती हैं।

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