‘नरेंद्र मोदी जितने बड़े सुधारवादी दिखते हैं उतने हैं नहीं’

नरेंद्र मोदीनई दिल्ली। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सत्ता की कुर्सी हासिल किए हुए तीन साल हो चुके हैं। उनके फालोवर की संख्या दिन पर दिन बढ़ती ही जा रही है। अपनी धाकड़ वाकपटुता और बातों को लच्छेदार ढंग से प्रस्तुत करने की शैली ने उनकी ख्याति में चार-चांद लगा दिए हैं। उन्ही के चेहरे के दम पर भाजपा ने यूपी की कुर्सी पर योगी आदित्यनाथ को बैठाया। अब कोविंद नाम का पांसा राष्ट्रपति चुनाव के लिए फेंका गया। क्या यह सब देश हित में किया जा रहा है या सत्ता में काबिज रहने के लिए सियासी चाल, इस बात पर अब दबी जुबान में आवाजे सुनाई देने लगी हैं।

अंतरराष्ट्रीय कारोबारी पत्रिका दी इकोनॉमिस्ट के अनुसार, मोदी सरकार अपने तीन सालों के कार्यकाल  में आर्थिक सुधार करने में विफल साबित हुई है। कहा गया, “भारतीय प्रधानमंत्री जितने बड़े सुधारवादी दिखते हैं उतने हैं नहीं”

यानी कहीं न कहीं उनकी कार्यशैली को लेकर सवाल उठते नज़र आ रहे हैं। इससे पहले विपक्ष भी कई बार इस तरह के आरोप मोदी सरकार पर लगा चुका है। नोटबंदी और जीएसटी पर बात करते हुए उसे भी जन विरोधी बताया गया।

नोटबंदी के दौरान यह बात चर्चा में आई थी कि जिस फैसले को मोदी सरकार का क्रांतिकारी कदम बताया जा रहा असल में उसका असर मुख्यतः आम लोगों पर ही पड़ा। कालाधन रखने वालों पर तो इसका कोई ख़ास असर दिखाई नहीं दिया।

उसी दौरान आरबीआई के आकड़ों में यह बात भी साफ़ हुई कि पुराने नोटों की जमा राशि करीब 90 फीसदी से ज्यादा वापस आ गई थी। यानी कुछ परसेंट ही कालाधन था और उसे पकड़ने के लिए सरकार ने आम जनता की भूख, प्यास और जान की परवाह न करते हुए अपना यह तुगलकी फरमान थोप दिया।

अब मौजूदा समय में एक जुलाई से लागू होने वाले जीएसटी ने रही सही कसर पूरी करने की तैयारी कर ली है। जीएसटी को बेवजह जटिल और लालफीताशाही वाला कानून बताया गया है।

यह भी कहा गया कि मोदी सरकार के पास पिछले कुछ दशकों का सबसे प्रचंड बहुमत है और विपक्ष पूरी तरह ओजहीन है फिर भी वो बड़े स्तर पर आर्थिक सुधार नहीं लागू कर सकी।

मोदी सरकार वर्तमान वैश्विक अवसरों और लाभदायक घरेलू राजनीतिक परिस्थितियों का फायदा नहीं उठा सकी।

पीएम मोदी की कारोबार के लिए मित्रवत नेता की छवि मुख्यतः इस आधार पर बनी है कि वो मुश्किल में पड़ी संस्थाओं की मदद के लिए पुरजोर कोशिश करते हैं।

वरन इसके विपरीत यह भी कहा गया कि किसी एक फैक्ट्री को जमीन दिलवा देना या कहीं बिजलीघर निर्माण में तेजी ला देना तो ठीक है, लेकिन वो व्यवस्थित तरीके से काम करने में अच्छे नहीं हैं।

भारत को केवल बिजलीघर या विकास के लिए जमीन के टुकड़े भर नहीं चाहिए। उसे बिजली और जमीन के लिए सुचारू बाजार चाहिए, नकदी और श्रम क्षमता चाहिए, जिससे अर्थव्यवस्था को जड़ बनाने वाले मुश्किलों का हल निकाला जा सके।

यह भी कहा जा रहा है कि पीएम मोदी “सुधारवादी” से ज्यादा “अंध-राष्ट्रवादी” हैं। “चापलूसी भरी व्यक्तित्व पूजा” के केंद्र बन चुके हैं।

इन सभी पहलुओं को देखते हुए यह आशंका जतायी जा रही है कि ये सब आगामी चुनाव जीतने के लिए अपनाया गया हथकंडा हो सकता है, क्योंकि ये समझना बहुत टेढ़ी खीर नहीं कि वो गलत दिशा में जा रहे हैं।

(Economist.Com से साभार)

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