नई सरकार लाएगी चुनाव आयोग की विश्वसनीयता वापस !

बीते लोकसभा चुनावों में मतदान से लेकर मतगणना तक आए दिन चुनाव आयोग की भूमिका को लेकर कुछ न कुछ सवाल उठते रहे.आरोप लगे कि आयोग ने विपक्षी पार्टियों को बराबरी का मौका नहीं दिया. इससे चुनाव की पूरी प्रक्रिया के दौरान आयोग की विश्वसनीयता पर कई सवाल खड़े हो गए.

जिन मुद्दों को लेकर चुनाव आयोग पर आरोप लगे उनमें मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट (आदर्श आचार संहिता) का सही से पालन न करना, ईवीएम के रख रखाव और विपक्षी पार्टियों पर इनकम टैक्स और ईडी के छापे शामिल हैं.

कई मौकों पर नाराजगी इतनी बढ़ गई कि खुद सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा और पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को चुनाव आयोग को याद दिलाने की नौबत आ गई कि वो संस्था की अखंडता को बरकार रखे.

भारतीय लोकतंत्र को अक्षुण्ण रखने के लिए निष्पक्ष चुनाव करवाने में चुनाव आयोग की भूमिका अहम है. नई सरकार को आयोग के संविधान और कार्यप्रणाली में अहम बदलाव की लंबे समय से हो रही मांगों को मानने पर तुरंत विचार करना होगा.

 

 चयन की प्रक्रिया को और व्यापक करना

संविधान की धारा 324 चुनाव आयोग को ये अधिकार देती है कि वो चुनाव की प्रक्रिया का निर्देशन करे, साथ ही ये एक स्वतंत्र संस्था की तरह काम करे जिसमें विधायिका का कोई दखल न हो. साथ ही सरकार मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्त की नियुक्ति भी इस आधार पर करे.

“चुनाव आयोग में मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति समय-समय पर राष्ट्रपति द्वारा होती है. इनकी नियुक्तियों में बदलाव संसद की मंजूरी के बाद राष्ट्रपति द्वारा होना चाहिए.”

2015 की लॉ कमिशन की रिपोर्ट बताती है कि संविधान सभा में मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्त की नियुक्तियों को लेकर बहस हुई जिसमें राय दी गई कि इस तरह की नियुक्तियों को संसद में दो तिहाई बहुमत से पास कराया जाए.

हालांकि, संसद के संयुक्त अधिवेशन ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया गया और संसद को ये अधिकार दिया कि वो इस मामले पर कानून पारित करे.

आजादी के 70 साल बीतने के बाद भी इस तरह का कोई कानून नहीं बनाया गया. हर बार सरकार अपने पसंद के मुताबिक चुनाव आयोग के अफसरों की नियुक्ति करती रही है, जबकि सच्चाई ये है कि कई कमेटी और कमीशनों, कानून मंत्रालय और खुद चुनाव आयोग ये मांग कर चुका है कि आयोग के अफसरों की नियुक्ति द्विदलीय, विचार विमर्श के साथ और ज्यादा पारदर्शी तरीके से हो.

1990 में गोस्वामी कमेटी ने कहा था कि मुख्य चुनाव आयुक्त को राष्ट्रपति, मुख्य न्यायाधीश और नेता विपक्ष की राय से नियुक्त करें. इस तरह दूसरे चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में भी मुख्य चुनाव आयुक्त की राय ली जाए और इस पूरी प्रक्रिया को कानूनी जामा पहनाया जाए. इस बारे में 1990 में संशोधन ड्राफ्ट तैयार भी हुआ, लेकिन बाद में उसे वापस ले लिया गया.

2007 में दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग की रिपोर्ट में भी इसी तरह की व्यवस्था की गई थी. प्रधानमंत्री, लोकसभा स्पीकर, नेता विपक्ष, कानून मंत्री और राज्यसभा के उपसभापति को मिलकर चुनाव आयुक्त चुनना था मगर ये व्यवस्था भी फेल हो गई.

2015 में लॉ कमीशन ने तीन मेंबर कोलिजियम का प्रस्ताव रखा जिसमें प्रधानमंत्री, नेता विपक्ष और मुख्य न्यायाधीश ऐसी नियुक्तियां करें.

 

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आइये अब देखते हैं कि विदेशों में ऐसी नियुक्तियां कैसे होती हैं.

अमेरिका में फेडरल चुनाव आयुक्त राष्ट्रपति चुनते हैं जिसमें सीनेट की राय ली जाती है. कनाडा में हाउस ऑफ कॉमन की राय पर आयुक्त चुने जाते हैं, जबकि दक्षिण अफ्रीका में ये चुनाव नेशनल असेंबली के जरिए होता है.

भारत में भी लोकपाल, लोकायुक्त, सीईसी, और इन्फॉर्मेशन कमिश्नर, सीबीआई डायरेक्टर और सीवीसी का चुनाव ऐसे ही होता है.

इससे पहले चुनाव आयोग की ताकत को किसी ने नहीं पहचाना जब टीएन शेषन चुनाव आयुक्त बने तो उन्होंने आयोग को एक मजबूत और स्वतंत्र संस्था का रूप दे दिया था, लेकिन फिलहाल वैसे हालात नहीं दिखते.

 

मुख्य चुनाव आयुक्त की तरह हो चुनाव आयुक्तों को हटाने की प्रक्रिया

चुनाव आयुक्तों को भी आसानी से न हटाया जा सके, धारा 324(5) मुख्य चुनाव आयुक्त को तो सुप्रीम कोर्ट के जज जैसी सुरक्षा देता है, लेकिन चुनाव आयुक्त के बारे में ऐसा नहीं है, वो सरकार की मर्जी या मुख्य चुनाव आयुक्त की मर्जी पर काम करते हैं.

कोड ऑफ कंडक्ट के मामले में कुछ नेताओं को क्लीन चिट देने के मसले पर पिछले दिनों सीईसी सुनील अरोड़ा और चुनाव आयुक्त अशोक लवासा के बीच सार्वजनिक मतभेद ये बताते हैं कि चुनाव आयुक्तों को भी संवैधानिक सुरक्षा मिलनी चाहिए.

 

आयोग को मिले परमानेंट स्टाफ

चुनाव आयोग को भी स्थायी और स्वतंत्र सचिवालय मिलना चाहिए जो उसके स्टाफ का बचाव करे, आयोग के सभी बड़े अफसर सिविल सर्विसेंज से लिए जाते हैं. ज्यादातर दूसरे प्रदेशों से होते हैं और सिर्फ डेप्युटेशन पर आते हैं. सिर्फ निचले स्तर पर कर्मचारी स्थायी होते हैं.

दूसरी स्वायत्त संस्थाओं की तरह लंबे समय से आयोग की मांग रही है कि उनकी अपनी भर्ती होनी चाहिए. संसद को ये अधिकार है कि वो एक भर्ती बोर्ड और आयोग बना दे.

1990 में राज्यसभा में ऐसी कोशिश की भी गई, लेकिन 1993 में इसे वापस ले लिया गया जब चुनाव आयोग को 3 सदस्यीय कमेटी में तब्दील कर दिया गया. हालांकि, अब वक्त आ गया है कि इस पर एक बार फिर पुर्नविचार हो.

 

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