गढ़वाली रसोई की खातिर इन दो लड़कियों ने छोड़ दी अपनी नौकरी

देहरादून। खानपान की परंपरा को जिंदा रखने के लिए देहरादून में रहने वाली अर्चना रतूड़ी और स्वाति डोभाल ने ‘रस्यांण’ नाम से गढ़वाली रसोई शुरू की है। अर्चना पेशे से इंटीरियर डिजाइनर हैं, तो स्वाति ने एमबीए किया हुआ है। मूल रूप सेे गढ़वाल की रहने वाली अर्चना और स्वाति ने देहरादून से ही पढ़ाई की हैै।

गढ़वाली रसोई

गढ़वाली रसोई का जादू

याेरस्टोरीडॉटकॉम के मुताबिक अर्चना और स्वाति पहली बार साल 2012 में स्वंयसेवी संस्था ‘धाद फाउंडेशन’ में मिले। इसके बाद दोनों कई बार मिले और धीरे धीरे उनमें काफी गहरी दोस्ती हो गई। तब वो दोनों ही नौकरी करते थे, पर उन दोनों की ही इच्छा थी कि वो अपना कुछ काम करें। समस्या यह थी कि वो ये नहीं जानती थीं कि उनको क्या करना है। तभी स्वाति के पिता का लीवर ट्रांसप्लांट का ऑपरेशन दिल्ली में हुआ। वहां स्वाति ने देखा कि अस्पताल और उसके आस पास के दफ्तरों में टिफिन सर्विस का काम होता है। स्वाति को ये काम पसंद आया। देहरादून आकर उन्होंने ये बात अर्चना को बताई और कहा कि क्यों ना वो भी ऐसा ही काम देहरादून में करें। चूंकि देहरादून में भी बाहर के बहुत से बच्चे आकर पढ़ाई करते हैं, जो की आमतौर पर होटल या मैस में खाना खाते हैं। दोनों तय कि अगर साफ सुथरे माहौल में लोगों को घर का खाना पहुंचाया जाय तो उनको जरूर पसंद आयेगा।

हालांकि तब ये काम इतना आसान नहीं था क्योंकि उस वक्त अर्चना और स्वाति दोनों ही अपने अपने क्षेत्रों में काम कर रहे थे। बावजूद दोनों ने तय किया कि वो इस काम को नौकरी के साथ करेंगे। इस तरह दोनों ने साल 2014 में ‘सांझा चूल्हा’ नाम से टिफिन सेवा की शुरूआत की। अर्चना बताती हैं, ‘पहाड़ी समाज में व्यापार को बहुत अच्छा नहीं समझा जाता। इसलिए हम दोनों ने अपने इस काम के बारे में घर में कुछ नहीं बताया। साथ ही एक कमरा और किचन किराये में लेकर इस काम को शुरू किया।’

अपनी गढ़वाली रसोई का काम को बढ़ाने के लिए इन दोनों ने 4 महिलाओं को रखा। ये महिलाएं या तो विधवा है या फिर बहुत गरीब हैं और जिन पर अपने परिवार की पूरी जिम्मेदारी है। शुरूआत में इन दोनों ने खाना बांटने के लिए एक लड़के को इस काम के लिए नियुक्त किया था लेकिन जब उसने इस काम में गड़बड़ी की तो दोनों ने इस काम की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। गढ़वाली रसोई से आज अर्चना और स्वाति दोनों मिलकर विभिन्न दफ्तरों और दुकानों में खाना पहुंचाने का काम करती हैं। खाने में वो दाल, चावल, सब्जी, अचार, सलाद और 4 रोटी देती हैं।

शुरूआत से ही इनके काम की लोग तारीफ करने लगे। अर्चना का कहना है कि कुछ बुजुर्ग लोग तो उनके काम से इतने खुश हुए कि वो उनको इस काम के लिए अडवांस में ही पैसे देने की पेशकश करने लगे। हालांकि इसे दोनों ने बड़ी विनम्रता से मना कर दिया। धीरे धीरे लोग इनके काम को पहचानने लगे। एक बार उत्तराखंड की एक पत्रिका ‘अतुल्य उत्तराखंड’ में इन दोनों के काम को लेकर एक लेख छपा और इनकी फोटो कवर पेज पर छपी। जिसमें इनके काम की काफी तारीफ की गई थी। तब इन दोनों ने अपने इस काम के बारे में अपने घर वालों को बताया। इस पर पहले तो उनके माता पिता नाराज हुए, लेकिन जैसे जैसे उनका काम बढ़ने लगा तब घर वाले भी उनको सहयोग करने लगे। स्वाति के भाई जरूरत पड़ने पर इनकी मदद करते हैं।

गढ़वाली रसोई की टिफिन सेवा के बाद इन दोनों दोस्तों ने केटरिंग के क्षेत्र में उतरने का फैसला लिया। हालांकि इस क्षेत्र में पहले से ही कड़ा मुकाबला था, लिहाजा दोनों ने तय किया कि वो दूसरों से अलग ऐसा कुछ करेंगे ताकि लोग उनके पास खींचे चले आए। दोनों ने मिलकर तय किया कि वो उत्तराखंड के खानपान की परंपरा को जिंदा रखने के लिए कुछ करेंगे। इसके लिए उन्होंने इस साल जनवरी से ‘रस्यांण’ नाम से केटरिंग सेवा शुरू की। जिसके जरिये ये दोनों पहाड़ी खाने को लोगों के सामने ला रहे हैं। अर्चना का मानना है कि

“इस तरह एक तो लोग पहाड़ी खाने से परिचित होंगे दूसरा इसके जरिये पहाड़ी अनाज की डिमांड बढ़ेगी। जिससे गांव की महिलाओं को भी अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार मिलेगा।”

दोनों दोस्तों की इस कोशिश को स्थानीय लोगों ने काफी पसंद किया है। इतना ही नहीं देहरादून और उसके आसपास के कई होटलों ने इस काम के लिए इनसे सम्पर्क किया है, ताकि वो भी अपने यहां मिलने वाले खाने के साथ अपने ग्राहकों को पहाड़ी खाने का भी लुत्फ दे सकें। अर्चना के मुताबिक हालांकि उनके इस काम को शुरू हुई कुछ ही वक्त हुआ है, लेकिन डिमांड उम्मीद से बढ़कर है। इस काम को इन दोनों ने अपने ही पैसे लगाकर शुरू किया है। अपनी भविष्य की योजनाओं के बारे में अर्चना का कहना है,

“मैंने और स्वाति दोनों ने ही ये सोच रखा है कि यदि हमारा केटरिंग का काम अच्छा चल निकला तो हम देहरादून में एक ऐसा रेस्टोरेंट खोलेगें जिसकी थीम पहाड़ की ही होगी। जिसमें सारा खाना पहाड़ी होगा इतना ही नहीं वेटर की ड्रेस भी पहाड़ी होगी। साथ ही हमारी कोशिश होगी की इसमें काम करने वाली ज्यादातर महिलाएं ही हों।”

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