आत्मा की शुद्धि और पापों से मुक्ति का पर्व है गंगा दशहरा

गंगा दशहराआज मां गंगा के प्रकटीकरण का दिन, मां आज ही के दिन पृथ्‍वी पर अवतरित हुईं थीं। भगीरथी की तपस्या के बाद जब गंगा माता धरती पर आयीं उस दिन ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की दशमी थी। गंगा इतनी पावन है कि इसके संपर्क में आते ही लोगों के पाप धुल जाते हैं, निष्कलंक हो जाते हैं। सदियों से गंगा निरंतर लोगों की नकारात्मकता को स्वयं में समाहित कर सकारात्मकता का प्रसार करती आ रही है। गंगा माता के धरती पर अवतरण के दिन को ही गंगा दशहरा के नाम से पूजा जाना जाने लगा। इस दिन गंगा नदी में खड़े होकर जो गंगा स्तोत्र पढ़ता है वह अपने सभी पापों से मुक्ति पाता है।

गंगा दशहरा पर करें दिल खोल कर दान

स्कंद पुराण में गंगा दशहरा नाम का गंगा स्तोत्र दिया हुआ है। इस दिन गंगा में अपने को पवित्र किया जाता है और दान दिया जाता है। यदि कोई मनुष्य पवित्र नदी तक नहीं जा पाता तब वह अपने घर पर ही पवित्र गंगाजल को पानी में मिलाकर नहा सकते हैं। ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की दशमी को संवत्सर का मुख कहा गया है, इसलिए इस दिन दान और स्नान का अत्यधिक महत्व है।

वराह पुराण के अनुसार ज्येष्ठ शुक्ल दशमी, बुधवार के दिन, हस्त नक्षत्र में गंगा स्वर्ग से धरती पर आई थी। इस पवित्र नदी में स्नान करने से दस प्रकार के पाप नष्ट होते है।

मनुस्मृति में दस तरह के कायिक, वाचिक और मानसिक पापों का उल्लेख है। बिना अनुमति किसी दूसरे की वस्तु लेना, शास्त्र वर्जित हिंसा, परस्त्री गमन को कायिक पापा माना है। कटु वचन, असत्य भाषण, परोक्ष निंदा और निष्प्रयोजन वार्तालाप ये चार वाचिक पाप हैं। इसके अलावा दूसरे की संपत्ति को लेने का विचार, किसी के अनिष्ट की कामना और असत्य हठ को मानसिक पाप माना गया है। गंगा दशहरा के दिन मां गंगा के पावन जल में स्नान करने से इन दसों प्रकार के पापों से मुक्ति मिलती है।

आज है विशेष योग

इस बार यह दिन विशेषनारद पुराण के अनुसार ज्येष्ठ मास को मंगलवार के दिन शुक्ल पक्ष में दशमी तिथि को हस्त नक्षत्र में जाह्नवी (मां गंगा) का मृत्युलोक में अवतरण हुआ। इस दिन वह आद्यगंगा स्नान करने पर दस गुने पाप हर लेती हैं।

गंगा दशहरा की पूजा विधि

इस दिन पवित्र गंगा जी में स्नान किया जाता है। अपने घर के पास किसी नदी या तालाब में गंगा मैया का ध्यान करते हुए स्नान कर सकता है (गंगा जी का ध्यान करते हुए षोडशोपचार से पूजन करना चाहिए। गंगा जी का पूजन करते हुए निम्न मंत्र पढ़ना चाहिए – ऊँ नम: शिवायै नारायण्यै दशहरायै गंगायै नम:।

इस मंत्र के बाद ‘ऊँ नमो भगवते ऎं ह्रीं श्रीं हिलि हिलि मिलि मिलि गंगे मां पावय पावय स्वाहाश’ मंत्र का पाँच पुष्प अर्पित करते हुए पूजन करना चाहिए।

इसके साथ ही गंगा के उत्पत्ति स्थल को भी स्मरण करना चाहिए। गंगा जी की पूजा में सभी वस्तुएँ दस प्रकार की होनी चाहिए। जैसे दस प्रकार के फूल, दस गंध, दस दीपक, दस प्रकार का नैवेद्य, दस पान के पत्ते, दस प्रकार के फल होने चाहिए। यदि कोई व्यक्ति पूजन के बाद दान करना चाहता है तब वह भी दस प्रकार की वस्तुओं का करता है तो अच्छा होता है लेकिन जौ और तिल का दान सोलह मुठ्ठी का होना चाहिए। दक्षिणा भी दस ब्राह्मणों को देनी चाहिए। जब गंगा नदी में स्नान करें तब दस बार डुबकी लगानी चाहिए।

गंगा दशहरा का फल ज्येष्ठ शुक्ल दशमी के दिन गंगा स्नान करने से व्यक्ति के दस प्रकार के पापों का नाश होता है। इन दस पापों में तीन पाप कायिक, चार पाप वाचिक और तीन पाप मानसिक होते हैं। इन सभी से व्यक्ति को मुक्ति मिलती है।

गंगा दशहरा व्रत कथा

एक बार महाराज सगर ने व्यापक यज्ञ किया। उस यज्ञ की रक्षा का भार उनके पौत्र अंशुमान ने संभाला। इंद्र ने सगर के यज्ञीय अश्व का अपहरण कर लिया। यह यज्ञ के लिए विघ्न था। परिणामतः अंशुमान ने सगर की साठ हजार प्रजा लेकर अश्व को खोजना शुरू कर दिया। सारा भूमंडल खोज लिया पर अश्व नहीं मिला। फिर अश्व को पाताल लोक में खोजने के लिए पृथ्वी को खोदा गया। खुदाई पर उन्होंने देखा कि साक्षात्‌ भगवान महर्षि कपिल के रूप में तपस्या कर रहे हैं। उन्हीं के पास महाराज सगर का अश्व घास चर रहा है। प्रजा उन्हें देखकर चोर-चोर चिल्लाने लगी। महर्षि कपिल की समाधि टूट गई। ज्यों ही महर्षि ने अपने आग्नेय नेत्र खोले, त्यों ही सारी प्रजा भस्म हो गई। इन मृत लोगों के उद्धार के लिए ही महाराज दिलीप के पुत्र भगीरथ ने कठोर तप किया था। भगीरथ के तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने उनसे वर मांगने को कहा तो भगीरथ ने गंगा की मांग की।

इस पर ब्रह्मा ने कहा- राजन! तुम गंगा का पृथ्वी पर अवतरण तो चाहते हो? परंतु क्या तुमने पृथ्वी से पूछा है कि वह गंगा के भार तथा वेग को संभाल पाएगी? मेरा विचार है कि गंगा के वेग को संभालने की शक्ति केवल भगवान शंकर में है। इसलिए उचित यह होगा कि गंगा का भार एवं वेग संभालने के लिए भगवान शिव का अनुग्रह प्राप्त कर लिया जाए। महाराज भगीरथ ने वैसे ही किया। उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने गंगा की धारा को अपने कमंडल से छोड़ा। तब भगवान शिव ने गंगा की धारा को अपनी जटाओं में समेटकर जटाएं बांध लीं। इसका परिणाम यह हुआ कि गंगा को जटाओं से बाहर निकलने का पथ नहीं मिल सका।

अब महाराज भगीरथ को और भी अधिक चिंता हुई। उन्होंने एक बार फिर भगवान शिव की आराधना में घोर तप शुरू किया। तब कहीं भगवान शिव ने गंगा की धारा को मुक्त करने का वरदान दिया। इस प्रकार शिवजी की जटाओं से छूट कर गंगाजी हिमालय की घाटियों में कल-कल निनाद करके मैदान की ओर मुड़ी। उन्होंने जनमानस को अपने पुण्य से उपकृत कर दिया। युगों-युगों तक बहने वाली गंगा की धारा महाराज भगीरथ की कष्टमयी साधना की गाथा कहती है।

गंगा प्राणीमात्र को जीवनदान ही नहीं देती, मुक्ति भी देती है। इसी कारण भारत तथा विदेशों तक में गंगा की महिमा गाई जाती है।

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