आखिर क्या है यह गंगा- जमुनी तहजीब और क्या है इसका महत्व

गंगा जामुनी तहजीब हमारे देश की पारंपरिक और अनोखी तहजीब है। एक ऐसी तहजीब जिसमें भारत की परंपरा सांस लेती है , शब्दों की पराकाष्ठा ऊंचाई भरती है।

दोआब का रहने वाला हूं ऐसे में ये शब्द जादू की तरह से मुझपर चिपक गया. ऐसा शब्द जिसमें सैंकड़ों साल की तहजीब की बात बार बार होती है. मैं ऐसे तिलिस्म में घुस जाता हूं जिसमें दरवाजे ही दरवाजे है. लेकिन क्या वो सब दरवाजे वाकई ऐसे रास्तों की ओर खुलते है जहां से मेरे पुरखों ने एक मिली-जुली संस्कृति की नींव रखी थी. क्या ऐसी संस्कृति जहां एक दूसरे की परंपराओं और धार्मिक आस्थाओं के प्रति सम्मान का समानता का भाव रहा था. ऐसे ही रास्ते जिनपर मेरे पूर्वजों ने हमलावरों के तौर पर आएँ हुए धर्म के साथ सहजता का संबंध बनाने में सफलता प्राप्त कर ली थी.

 

 

गंगा- जमुनी तहजीब

 

मोहम्मद बिन कासिम की लूट और हत्याओं की कहानी की शुरूआत और गजनवी, गुलाम वंश के अंधें बर्बर शासकों, खिलजी की धर्मांधता के साथ क्रूरता और फिर तुगलक वंश के ईद के दिन हिंदुओं की लड़कियों की सरेआम नुमाईश और अपने वंशजों के साथ बाहर से आएं हुए स्वधर्मिरयों को गुलाम के तौर पर देने की या फिर मुगलिया सल्तनत के अत्याचारों और देश के अलग अलग हिस्से में अलग-अलग नाम से राज कर रहे धार्मिक जिहादी सुल्तानों के इंसानियत के रूह कंपाने वाले अत्याचारों के बाद भी आम मुस्लिम आम काफिरों से बराबरी का बर्ताव कर रहा था. काफिरों की बेटियों को ईज्जत से नवाज रहा था और काफिरों के धार्मिक आचार-विचार की हिफाजत में शाहीन बाग की तरह विरोध कर रहा था.
ये सिर्फ सवाल थे इनके जवाब उस वक्त की किताबों में दफन हो सकते है.

उस वक्त की किताबें जिनमें खास तौर से मुस्लिम शासकों के समय के मुस्लिम इतिहासकार या फिर जीवनीकार या फिर वो विदेशी यात्री जिन्होंने उस दौरान इस देश की यात्रा की है के लिखे गए वृतांत ही आधार बन सकते है या फिर उस वक्त के काफिरों के खड़े हुए स्मारकों के साथ कैसा व्यवहार किया गया और किस तरह उस वक्त संस्कृति की इबारत लिखी गई.

क्योंकि 2014 में बीजेपी की सरकार आने के बाद वाकई इस पर काफी बात की गई. यहां तक कि बहुत से लोगों ने ये कह दिया कि इतिहास बदला जा रहा है. मुझे भी लगता है कि ये देखना जरूरी है कि जो बदला जा रहा है वो इतिहास क्या है. क्या वाकई वो इतिहास है. क्या वाकई वो लिखा गया हुआ इतिहास है और लिखने वाले कौन है. क्या वो वाकई बिना किसी विचारधारा की पैरवी किए बिना किताब लिख रहे है.
बचपन से लोक साहित्य की मौखिक परंपरा या फिर आंचलिक भाषाओँ में रचे गए कुछ अनाम से साहित्य में उस वक्त को कैसे देखा गया इस पर भी बात करनी चाहिए.

बार बार गंगा-जमुनी तहजीब के गायब होने की या नष्ट होने की कहानी में मुझ ये बात देखने के लिए मजबूर किया कि वाकई ये बात देखनी चाहिए कि आखिर गंगा-जमुनी तहजीब क्या है. क्योंकि इसके अलावा तो कही ये तहजीब हो नहीं सकती है.
गंगां नदी (जिसे मैं नदी लिखने पर भी अपनी मां से क्षमा चाहूगा क्यों वो मां गंगा या फिर गंगा मैया के अलावा कुछ भी शब्द इस अविरल धारा के लिए नहीं बोली ) हिंदु यानि काफिरों की पंरपरा में मातृ भाव से पूजी जाती है और यमुना या जमुना भी नदियों के आर पार बसे लोग जमुना मैया कह कर ही जल का आचमन करते रहे है. ऐसे में बर्बर, वहशियों और लुटेरों के तौर पर घुसे जिहादी सुल्तानों के ईतर इस्लाम के अनुयायियों ने इन नदियों का क्या इस्तेमाल किया कि ये नदियां गंगा-जमुनी तहजीब का प्रतीक बनी और नाम बन कर आम चलन में आ गई.

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