क्या 2014 जैसा ही माहौल फिर बनने की उम्मीद लगाई जा रही है ?

राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव के दौरान लोकसभा में अपने संबोधन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विपक्ष पर जमकर वार किया. अपनी सरकार की उपलब्धियां गिनाते-गिनाते प्रधानमंत्री ने विपक्ष के द्वारा की जा रही महागठबंधन की कोशिशों को आड़े हाथों लिया और इसे महामिलावट करार दिया. प्रधानमंत्री ने कहा कि 30 साल तक देश ने मिलावट वालों को देखा है, इसलिए इस बार महाविलावट वालों को इधर (सत्ता पक्ष) नहीं आने देंगे. तो क्या अगली सरकार ‘महा-मिलावट’ (जैसा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद के अपने भाषण में कहा) की बनेगी या फिर महागठबंधन की?

BJP-कांग्रेस

अगली सरकार किसकी बनेगी ये तो आनेवाले कुछ महीनों में देश की जनता तय कर देगी लेकिन पिछले कुछ महीनों से गठबंधन की बात जोरों पर है. आखिर ऐसा क्यों है कि गठबंधन इतना महत्वपूर्ण हो गया? आज गठबंधन की बात सिर्फ देश की विपक्षी पार्टियां ही नहीं कर रही हैं बल्कि 30 साल बाद 2014 में एक मजबूत बहुमत के साथ दिल्ली में सरकार बनाने वाली भाजपा भी गठबंधन को अहमियत दे रही है.

अगर ऐसा नहीं होता तो भाजपा बिहार में अपने 2 सांसदों वाली पार्टी जद (यू) को अपने द्वारा जीती गई सीटों को कुर्बान करके भी अपने बराबर सीट 2019 के चुनाव लड़ने के लिए क्यों दे रही है? वही भाजपा शिवसेना की बार-बार की हेकड़ी सुनने के बावजूद उसके साथ महाराष्ट्र में 2019 चुनाव के लिए गठबंधन में क्यों रहना चाहती है?

यह गंभीर सवाल है जिसकी व्याख्या अलग-अलग तरीकों से की जा सकती है. साथ ही यह सोचने के लिए विवश करती है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? इसकी एक बड़ी वजह यह है कि देश की राजनीति विगत तीन दशक से राज्यों के अपनी राजनीति के गलियारों से हो कर आ रही है और इसका एक पुख्ता प्रमाण यह है कि 1989 से लेकर आजतक के चुनाव में क्षेत्रीय और छोटी पार्टियों के कुल वोट में कोई गिरावट नहीं आई है और तो और 2014 के चुनाव में ‘मोदी लहर’ के बावजूद क्षेत्रीय और छोटी पार्टियों के वोट घटने की बजाय एक प्रतिशत बढ़ ही गया.

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चार्ट 1 को देखने से जो एक बड़ी और मोटी बात उभर कर आती है वह यह कि 1996 के लोकसभा चुनाव से ही छोटी और क्षेत्रीय पार्टियों के कुल वोट में लगातार बढ़ोतरी ही हुई है सिवाय 1999 के चुनाव में जब उसे सिर्फ एक प्रतिशत वोट का नुकसान हुआ था. इसके अलावा जो एक और बात सामने आती है वह यह कि जो बड़ी बदलाव पार्टियों के वोट में है वो कांग्रेस और भाजपा के वोट में है. सिवाय 2004 के लोकसभा चुनाव के (जिसमें कांग्रेस और भाजपा दोनों के वोटों में गिरावट आई थी), हर चुनाव में अगर कांग्रेस का वोट घटता है तो भाजपा का बढ़ता है और भाजपा का घटता है तो कांग्रेस का बढ़ता है.

2014 के चुनाव में भी यही बात दोहराई गई, तीसरी जो बात यह है कि 2014 के चुनाव में पहली बार लेफ्ट पार्टी के वोट में उसको पिछले चुनाव में मिले वोट के मुकाबले लगभग आधे की कमी आई है जो कि चुनावी राजनीति में पार्टी के लिए एक कठिन राह की तरफ इशारा करती है.

अगर पार्टी के वोट के अलावा 1996 से लेकर 2014 के चुनाव में क्षेत्रीय और छोटी पार्टियों को मिले कुल सीट को भी देखें तो लगभग यही नजारा देखने को मिलता है.

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1996 से लेकर अंतिम लोकसभा चुनाव 2014 तक के प्रत्येक चुनाव में भाजपा और कांग्रेस के अलावा 200 से ज्यादा सीटें अन्य पार्टियों के खाते में गईं. यहां तक कि 2014 के चुनाव में भाजपा और कांग्रेस द्वारा जीती गईं कुल सीटों में सिर्फ चार सीटों का ही इजाफा हुआ था. यानी कि भाजपा की ज़्यादातर सीटें कांग्रेस के नुकसान से आई थीं 2014 में, वैसे भी 2014 के चुनाव में कांग्रेस को 162 सीटों का नुकसान हुआ था जबकि भाजपा को 2009 के मुक़ाबले 166 सीटों का फायदा हुआ था.

लेकिन अगर ऐसी ही बात है तब उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में वहां की दो प्रमुख पार्टियां समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के सीट का क्या हिसाब है? दरअसल इसका मतलब है कि कुछ राज्यों में क्षेत्रीय और छोटी पार्टी भी 2014 के चुनाव में हारीं और उन्हें सीटों का नुकसान हुआ लेकिन दूसरे राज्यों में अन्य क्षेत्रीय और छोटी पार्टियां चुनाव में अपनी जीत हासिल कर अपनी सीटों की संख्या बढ़ा लीं, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु आदि राज्य इसी के उदाहरण है.

बहरहाल, दोनों बड़ी पार्टियां कांग्रेस और भाजपा इस पहलू को जानती है और इसलिए उनकी अहमियत को समझती है. यही वजह है कि तमाम आलोचनाओं के बावजूद दोनों बड़ी पार्टियां 2019 के लोकसभा चुनाव में छोटी और क्षेत्रीय पार्टी की अहमियत को दरकिनार नहीं कर सकती हैं.

अब तो बस कुछ महीनों का इंतज़ार बाकी है, देखना यह है कि ये छोटी पार्टियां 2019 के चुनाव में भी अपना प्रदर्शन पहले की तरह बरकरार रख पाती है या फिर उनके प्रदर्शन में कोई नाटकीय बदलाव आएगा?

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