ईश्वर और जीव में भेद

a1गोस्वामी तुलसीदास का यह प्रबंध काव्य गूढ़ रहस्यों से भरा है। उन्होंने एक जगह कहा- ‘ईस्वर अंस जीव अविनासी’ अर्थात् यह जीव भी ईश्वर का अंश है और इसका कभी विनाश नहीं होता। इसके पश्चात जब नारद जी पार्वती के बारे में बताते हैं कि इसका पति कैसा होगा और वे सभी चिह्न भगवान शिव में अनुमानित करते हुए कहते हैं कि समरथ कहुं नहिं दोषु गोसाईं तो यह भी बताते हैं कि ईश्वर और जीव में भेद होता है। यह भेद है जीव की ईश्वर से समकक्षता नहीं स्थापित की जा सकती क्योंकि जीव ईश्वर का अंश मात्र है, ईश्वर नहीं है। इसी प्रसंग के साथ पार्वती की शिव को पाने के लिए तपस्या और विवाह को लेकर पार्वती की माता मैना की चिंता का वर्णन किया गया है।

जौं अस हिसिषा करहिं नर जड़ विवेक अभिमान।
परहिं कलप भरि नरक महुँ जीव कि ईस समान।

गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि समर्थ के लिए दोषारोपण आसान नहीं होता जैसे सूर्य, अग्नि और गंगा समर्थ हैं लेकिन इसकी तुलना कोई मनुष्य अपने से करे तो यह उसका अविवेक होगा। यदि मूर्ख मनुष्य ज्ञान के अभिमान से इस प्रकार की होड़ करते हैं तो वे कल्प भर नरक में निवास करेंगे। इसका कारण है कि ईश्वर का अंश होते हुए भी जीव ईश्वर के समान (सर्वथा स्वतंत्र) नहीं हो सकता। इसको समझाने के लिए महाकवि तुलसीदास कहते हैं-

सुरसरि जल कृत बारुनि जाना, कबहुं न संत करहिं तेहि पाना।
सुरसरि मिलें सो पावन जैसे, ईस अनीसहिं अंतरु तैसे।

यदि गंगा जी के जल से शराब (बारूनी) बनायी गयी है तो संत लोग कभी इसका पान नहीं करेंगे। संत उसे मदिरा ही समझेंगे, गंगाजल नहीं लेकिन वही शराब यदि गंगा जी में मिला दी जाए तो वह भी पवित्र गंगाजल बन जाती है। ईश्वर और जीव में इसी तरह का भेद है। जीव जब अपने रूप में रहता है तो ईश्वर का अंश होते हुए भी जीव है जबकि ईश्वर में मिल जाने पर ही वह ईश्वर बन जाता है। इस भेद को समझना चाहिए।

संभु सहज समरथ भगवाना, एहि विवाहँ सब विधि कल्याना।
दुराराध्य पै अहहिं महेसू, आसुतोष पुनि किएँ कलेषू।

नारद मुनि हिमवान और मैना को समझाते हुए कहते हैं कि भगवान शंकर सहज ही समर्थ हैं क्योंकि वे भगवान हैं। इसलिए इस विवाह में सब प्रकार से कल्याण है लेकिन भगवान शिव की आराधना बहुत कठिन है। नारद ने कहा आराधना कठिन होने पर भी तपस्या करने से भगवान शिव बहुत जल्दी प्रसन्न हो जाते हैं।

जौं तपु करै कुमारि तुम्हारी, भाबिउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी।
जद्यपि बर अनेक जगमाहीं, एहि कहं सिव तजि दूसर नाहीं।

नारद ने हिमवान और मैना से कहा कि यदि तुम्हारी कन्या तप करे तो त्रिपुरारि महादेव जी होनी (भावी)
को भी टाल सकते हैं। यद्यपि संसार में पार्वती के लिए वर अनेक मिल सकते हैं लेकिन इसके लिए भगवान शिव को छोड़कर दूसरा कोई वर नहीं है।

वरदायक प्रनता रति भंजन, कृपासिंधु सेवक मनरंजन।
इच्छित फल बिनु सिव
अवराधे, लहिउ न कोटि जोग जप साधे।

शिव जी वर देने वाले, शरणागत के दुखों का नाश करने वाले, कृपा के समुद्र और सेवकों के मन को प्रसन्न करने वाले हैं। शिव जी की आराधना किये बिना करोड़ों योग और जप करने पर भी मनचाहा वर नहीं मिल सकता।

अस कहि नारद सुमिरि हरि गिरिजहिं दीन्ह असीस।
होइहि यह कल्यान अब संसय तजहु गिरीस।

ऐसा कहकर भगवान का स्मरण करके नारद ने पार्वती को आशीर्वाद दिया और कहा हे पर्वतराज! तुम संदेह का त्याग कर दो, अब यह कल्याण ही होगा।

कहि अस ब्रह्म भवन मुनि गयऊ, आगिल चरित सुनहु जस भयऊ।
पतिहि एकान्त पाइ कह मैना, नाथ न मैं समुझे मुनि बैना।
जौं धरु बरु कुलु होइ अनूपा, करिअ विवाहु सुता अनुरूपा।
न त कन्या बरु रहउ कुआरी, कंत उमा मम प्रान पिआरी।

इतना सब समझाने के बाद नारद तो ब्रह्म लोक चले गये, अब आगे जो चरित्र हुआ उसे भी सुनो। पति को एकान्त में पाकर मैना ने कहा- हे नाथ! मैंने नारद मुनि के वचनों का अर्थ नहीं समझा है। उन्होंने कहा कि हमारी कन्या के अनुरूप वर, घर और कुल (वंश) मिले तो उसका विवाह कीजिए, नहीं तो लड़की चाहे कुमारी ही रहे लेकिन अयोग्य वर के साथ मैं विवाह नहीं करना चाहती क्योंकि पार्वती मुझे प्राणों के समान प्याारी है।

जौं न मिलिहि बरु गिरिजहिं जोगू, गिरिजड़ सहज कहिहि सबु लोगू।
सोइ विचारि पति करेहु विवाहू, जेहिं न बहोरि होइ उर दाहू।
अस कहि परी चरन धरि सीसा, बोले सहित सनेह गिरीसा।
बरु पावक प्रगटै ससि माही, नारद वचनु अन्यथा नाहीं।

मैना ने कहा यदि पार्वती के योग्य वर न मिला तो सभी लोग कहेंगे कि पर्वत स्वभाव से जड़ (मूर्ख) होते हैं। हे स्वामी, इस बात को विचार कर ही विवाह कीजिएगा जिसमें फिर पीछे हृदय में संताप न हो। इस प्रकार कहकर मैना पति के चरणों पर मस्तक रखकर गिर पड़ीं। तब हिमवान ने प्रेम से कहा- चाहे चन्द्रमा में अग्नि प्रकट हो जाए लेकिन नारद का वचन असत्य नहीं हो सकता।

प्रिया सोचु परिहरहु सबु सुमिरहु श्री भगवान।
पारबतिहि निरमयउ जेहिं सोइ करिहि कल्यान।
अब जौं तुम्हहि सुता पर नेहू, तौ अस जाइ सिखावनु देहू।
करै सो तपु जेहिं मिलहिं महेसू, आन उपायँ न मिटिहि कलेसू।

हिमवान ने कहा कि प्रिया (मैना) सब सोच (चिंता) छोड़कर श्री भगवान का स्मरण करो जिन्होंने पार्वती को रचा है, वे ही कल्याण करेंगे। उन्होंने कहा यदि तुम्हें अपनी बेटी से स्नेह है तो जाकर उसे यह शिक्षा दो कि वह ऐसा तप करे, जिससे शिवजी मिल जाएं। अन्य किसी उपाय से यह क्लेश मिटने वाला नहीं है।

नारद वचन सगर्भ सहेतु, सुंदर सब गुन निधि वृषकेतू।
अस विचारि तुम्ह तजहु असंका, सबहि भांति संकरु अकलंका।

हिमवान ने कहा कि नारद जी के बचन रहस्य से भरे और सकारण हैं अर्थात् उनके पीछे भी कोई कारण छिपा है और शिव जी समस्त सुन्दर गुणों के भंडार हैं। यह विचार कर तुम मिथ्या संदेह को छोड़ दो, शिवजी सभी तरह से निष्कलंक हैं। -क्रमशः (हिफी)

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