कृत्रिम पैरों से एवरेस्ट फतह

अरुणिमा सिन्हाइतिहास गवाह है कि अर्से से महिलाओं को कोमल और कमजोर समझा जाता रहा है। आज जब समाज बदलाव और बराबरी के अधिकार की बात करता है, फिर भी इसमें किसी तरह की कमी नहीं आई है। इन्हें कहीं न कहीं इन समस्याओं को जिन्दगी के हर पड़ाव पर झेलना पड़ता है। गलती हो तब भी और न हो फिर भी। गलत तो बस उन्ही को ठहराया जाता है। पाबन्दी तो बस उन्ही पर होती है। यदि कोई महिला या लड़की अपने अधिकार को लेकर विरोध के लिए खड़ी होती है तो लोग उसका साथ देने के बजाय उसके चरित्र पर सवाल उठाने लगते हैं। आज हम जिस शख्सियत कि कहानी आप को बताने जा रहे है उन्होंने समाज की इन सभी अवधारणाओं को किनारे करते हुए अपने जीवन को अलग ही आयाम दिया है। भारत सरकार ने 66वें गणतंत्र दिवस पर जिन लोगों के नामों की घोषणा पद्म पुरस्कारों के लिये की उनमें एक नाम इनका भी है। उत्तरप्रदेश की अरुणिमा सिन्हा को “पद्मश्री” के लिये चुना गया। “पद्मश्री” भारत सरकार द्वारा दिए जाने वाला चौथा सबसे बड़ा नागरिक सम्मान है।

अरुणिमा सिन्हा एक मिसाल

अरुणिमा सिन्हा दुनिया के सबसे ऊँचे पर्वत शिखर एवरेस्ट पर विजय प्राप्त करने वाली दुनिया की पहली विकलांग महिला हैं।

अरुणिमा सिन्हा को कुछ बदमाशों ने चलती ट्रेन से बाहर फेंक दिया था। अरुणिमा ने इन बदमाशों को अपनी चेन छीनने नहीं दिया था जिससे नाराज़ बदमाशों से उन्हें चलती ट्रेन से बाहर फेंक दिया। इस हादसे में बुरी तरह ज़ख़्मी अरुणिमा की जान तो बच गयी थी लेकिन उन्हें ज़िंदा रखने ले लिए डाक्टरों को उनकी बायीं टांग काटनी पड़ी। अपना एक पैर गँवा देने के बावजूद राष्ट्रीय स्टार पर वॉलीबाल खेलने वाली अरुणिमा ने हार नहीं मानी और हमेशा अपना जोश बनाये रखा। भारतीय क्रिकेटर युवराज सिंह और देश के सबसे युवा पर्वतारोही अर्जुन वाजपेयी के बारे में पढ़कर अरुणिमा ने उनसे प्रेरणा ली। फिर माउंट एवरेस्ट पर फतह पाने वाली पहली भारतीय महिला बछेंद्री पाल से मदद और प्रशिक्षण लेकर एवरेस्ट पर विजय हासिल की।

अरुणिमा सिन्हा ने एवरेस्ट पर फतह करने से पहले ज़िंदगी में कई उतार चढ़ाव देखे। कई मुसीबतों का सामना किया । कई बार अपमान सहा । बदमाशों और शरारती तत्वों के गंदे और भद्दे आरोप सहे । मौत से भी संघर्ष किया। कई विपरीत परिस्थितियों का सामना किया । लेकिन, कभी हार नहीं मानी । कमज़ोरी को भी अपनी ताकत बनाया। मजबूत इच्छा-शक्ति, मेहनत, संघर्ष और हार न मानने वाले ज़ज़्बे से असाधारण कामयाबी हासिल की। दुनिया की सबसे ऊंची पर्वत चोटी पर पहुँच कर अरुणिमा ने साबित किया कि हौसले बुलंद हो तो ऊंचाई मायने नहीं रखती, इंसान अपने दृढ़ संकल्प, तेज़ बुद्धि और मेहनत से बड़ी से बड़ी कामयाबी हासिल कर सकता है। अरुणिमा सिन्हा अपने संघर्ष और कामयाबी की वजह से दुनिया-भर में कई लोगों के लिए प्रेरणा बन गयी हैं। किसी महिला या युवती की ज़िंदगी की तरह साधारण नहीं अरुणिमा की ज़िंदगी की कई घटनाएं।

बहादुरी की अद्भुत मिसाल पेश करने वाली अरुणिमा सिन्हा का परिवार मूलतः बिहार से है। उनके पिता भारतीय सेना में थे। स्वाभाविक तौर पर उनके तबादले होते रहते थे। इन्हीं तबादलों के सिलसिले में उन्हें उत्तरप्रदेश के सुल्तानपुर आना पड़ा था। लेकिन, सुल्तानपुर में अरुणिमा के परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। अरुणिमा के पिता का निधन हो गया। हँसते-खेलते परिवार में मातम छा गया।

पिता की मृत्यु के समय अरुणिमा की उम्र महज़ साल थी। बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और देखभाल की सारी ज़िम्मदेारी माँ पर आ पड़ी। माँ ने मुश्किलों से भरे इस दौर में हिम्मत नहीं हारी और मजबूत फैसले लिए। माँ अपने तीनों बच्चों- अरुणिमा, उसकी बड़ी बहन लक्ष्मी और छोटे भाई को लेकर सुल्तानपुर से अम्बेडकरनगर आ गयीं। अम्बेडकरनगर में माँ को स्वास्थ विभाग में नौकरी मिल गयी, जिसकी वजह से बच्चों का पालन-पोषण ठीक तरह से होने लगा। बहन और भाई के साथ अरुणिमा भी स्कूल जाने लगी। स्कूल में अरुणिमा का मन पढ़ाई में कम और खेल-कूद में ज्यादा लगने लगा था। दिनब दिन खेल-कूद में उसकी दिलचस्पी बढ़ती गयी। वो चैंपियन बनने का सपना देखने लगी।

जान-पहचान के लोगों ने अरुणिमा सिन्हा के खेल-कूद पर आपत्ति जताई, लेकिन माँ और बड़ी बहन ने अरुणिमा को अपने मन की इच्छा के मुताबिक काम करने दिया। अरुणिमा को फुटबॉल, वॉलीबॉल और हॉकी खेलने में ज्यादा दिलचस्पी थी। जब कभी मौका मिलता वो मैदान चली जाती और खूब खेलती। अरुणिमा का मैदान में खेलना आस-पड़ोस के कुछ लड़कों को खूब अखरता। वो अरुणिमा पर तरह-तरह की टिपाणियां करते। अरुणिमा को छेड़ने की कोशिश करते। लेकिन, अरुणिमा शुरू से ही तेज़ थी और माँ के लालन-पालन की वजह से विद्रोही स्वभाव भी उसमें था। वो लड़कों को अपनी मन-मानी करने नहीं देती । छेड़छाड़ की कोशिश पर अरुणिमा ऐसे तेवर दिखाती, जिससे डरकर लड़के दूर भाग जाते। एक बार तो अरुणिमा ने उसकी बहन से बदतमीज़ी करने वाले एक शख्स की भरे-बाजार में पिटाई कर दी थी।

हुआ यूं था कि अरुणिमा अपनी बड़ी बहन के साथ साइकिल पर कहीं जा रही। बीच में एक जगह रूककर बड़ी बहन किसी से बात करने लगीं। अरुणिमा थोड़ा आगे निकल गयी और वहीं रुककर अपनी बहन का इंतजार करने लगी। इसी बीच साइकिल पर सवार कुछ लड़के वहां से गुजरे। लड़कों ने अरुणिमा से उनके लिए रास्ता छोड़ने को कहा। अरुणिमा ने उन लड़कों से आगे खाली जगह से निकल जाने को कहा और अपनी जगह पर टिकी रही। अरुणिमा के इस रवैये से नाराज़ लड़कों से उसकी बहस शुरू हुई और इसी बीच बड़ी बहन वहां आ गयी। तैश में आये एक लड़के ने हाथ उठा दिया और अरुणिमा की बहन के गाल पर चांटा मारा । इस बात से अरुणिमा को बहुत गुस्सा आया और उसने उस लड़के को पकड़ कर पीटने की सोची। लेकिन, भीड़ का फायदा उठा कर वो लड़का और उसके साथी भाग निकले। लेकिन, अरुणिमा ने ठान ली कि वो उस लड़के को नहीं छोड़ेगी। दोनों बहनें उस लड़के की तलाश में निकल पड़े। आखिर वो लड़का उन्हें पान की एक दुकान पर दिखाई दिया। अरुणिमा ने उस लड़के को पकड़कर उसकी जमकर धुनाई की। इस धुनाई पर खूब बवाल मचा। कई लोगों ने लड़के को छुड़वाने की बहुत कोशिश की लेकिन, अरुणिमा नहीं मानी। लड़के के माँ-बाप ने जब आकर अपने लड़के की करतूत पर माफी माँगी , तब जाकर अरुणिमा ने लड़के को छोड़ा। इस घटना का नतीजा ये हुआ कि मोहल्ले में लड़कों से लड़कियों से साथ बदसलूकी बंद कर दी। अरुणिमा की बहादुरी और उसके तेवर की चर्चा अब मोहल्ले भर में थी।

दिन बीतते गए। अरुणिमा ने इस दौरान कई प्रतियोगिताओं में हिस्सा लिया और अपनी प्रतिभा से कईयों को प्रभावित किया। उसने खूब वॉलीबॉल-फुटबॉल खेला, कई पुरस्कार भी जीते। राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में भी खेलना का मौका मिला।

इसी बीच अरुणिमा की बड़ी बहन की शादी हो गई। शादी के बाद भी बड़ी बहन ने अरुणिमा का काफी ख्याल रखा। बड़ी बहन की मदद और प्रोत्साहन की वजह से ही अरुणिमा ने खेल-कूद के साथ साथ अपनी पढ़ाई भी जारी रखी। उसके कानून की पढ़ाई की और एलएलबी की परीक्षा भी पास कर ली। घर-परिवार चलाने में माँ की मदद करने के मकसद ने अरुणिमा ने अब नौकरी करने की सोची। नौकरी के लिए उसने कई जगह अर्ज़ियाँ दाखिल कीं।

इसी दौरान उसे केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल यानी सीआईएसएफ के दफ्तर से बुलावा आया। अफसरों से मिलने वो नॉएडा के लिए रवाना हो गयी। अरुणिमा पद्मावत एक्सप्रेस पर सवार हुई और एक जनरल डिब्बे में खिड़की के किनारे एक सीट पर बैठ गयी। कुछ ही दर बाद कुछ बदमाश लड़के अरुणिमा के पास आये और इनमें से एक ने अरुणिमा के गले में मौजूद चेन पर झपट्टा मारा। अरुणिमा को गुस्सा आ आया और वो लड़के पर झपट पड़ी। दूसरे बदमाश साथी उस लड़के की मदद के लिए आगे आये और अरुणिमा को दबोच लिया। लेकिन, अरुणिमा ने हार नहीं मानी और लड़कों से झूझती रही। लेकिन , उन बदमाश लड़कों ने अरुणिमा को हावी होने नहीं दिया। इतने में ही कुछ बदमाशों ने अरुणिमा को इतनी ज़ोर से लात मारी की कि वो चलती ट्रेन से बाहर गिर गयी। अरुणिमा का एक पाँव ट्रेन की चपेट में आ गया। और वो वहीं बेहोश हो गयी। रात-भर अरुणिमा ट्रेन की पटरियों के पास ही पड़ी रही। सुबह जब कुछ गाँव वालों ने उसे इस हालत में देखा तो वो उसे अस्पताल ले गए। जान बचाने के लिए डाक्टरों को अस्पताल में अरुणिमा की बायीं टांग काटनी पड़ी।

जैसे ही इस घटना की जानकारी मीडियावालों को हुई, ट्रेन की ये घटना अखबारों और न्यूज़ चैनलों की सुर्ख़ियों में आ गयी। मीडिया और महिला संगठनों के दबाव में सरकार को बेहतर इलाज के लिए अरुणिमा को लखनऊ के ट्रॉमा सेंटर में भर्ती कराना पड़ा।

सरकार की ओर से कई घोषणाएं भी की गयीं। तत्कालीन रेल मंत्री ममता बनर्जी ने अरुणिमा को नौकरी देने की घोषणा की। खेल मंत्री अजय माकन की ओर से भी मदद की घोषणा हुई। सीआईएसएफ ने भी नौकरी देने का ऐलान कर दिया। लेकिन, इन घोषणाओं के बाद ज्यादा कुछ नहीं हुआ। उलटे कुछ लोगों ने अरुणिमा के बारे में तरह-तरह की झूठी बातों का प्रचार किया। उसे बदनाम करने की कोशिश की गयी। कुछ शरारती तत्वों ने ये कहकर विवाद शुरू किया कि अरुणिमा सरकारी नौकरी की हकदार नहीं है क्योंकि उसने कभी राष्ट्रीय स्तर पर खेला ही नहीं है। कुछ ने ये अफवाह उड़ाई कि अरुणिमा ने इंटर की परीक्षा भी पास नहीं की है। कुछ लोगों ने तो हदों की सीमा पार कर ये कहना शुरू किया कि अरुणिमा किसी के साथ ट्रेन में भाग रही थी। कुछ बदमाशों ने आरोप लगाया की अरुणिमा शादीशुदा है । एक सरकारी अधिकारी ने कहा कि अरुणिमा ने ट्रेन के कूदकर आत्महत्या हरने की कोशिश की थी। दूसरे अधिकारी से शक जताया कि पटरियां पार करते समय दुर्घटनावश वो ट्रेन की चपेट में आ गयी।

इस तरह की बातें मीडिया में भी आने लगीं । अरुणिमा इन बातों से बहुत हैरान और परेशान हुई। वो अपने अंदाज़ में आरोप लगाने वालों को जवाब देना चाहती थी। लेकिन बेबस थी। एक पाँव काट दिया गया था और शारीरिक रूप से कमज़ोर होकर वो अस्पताल में बिस्तर पर पड़ी हुई थी। वो बहुत कुछ चाह कर भी कुछ न कर पाने की हालत में थी। माँ, बहन और जीजाजी ने अरुणिमा की हिम्म्त बढ़ाई और उसे अपना ज़ज़्बा बरकरार रखने की सलाह दी।

अस्पताल में इलाज के दौरान समय काटने के लिए अरुणिमा ने अखबारें पढ़ना शुरू किया । एक दिन जब वह अखबार पढ़ रही थी।उसकी नज़र एक खबर पर गयी। खबर थी कि नोएडा के रहने वाले 17 वर्षीय अर्जुन वाजपेयी ने देश के सबसे युवा पर्वतारोही बनने का कीर्तिमान हासिल किया है। इस खबर ने अरुणिमा के मन में एक नए विचार को जन्म दिया। खबर ने उसके मन में एक नया जोश भी भरा था। अरुणिमा के मन में विचार आया कि जब 17 साल का युवक माउंट एवरेस्ट पर विजय पा सकता है तो वह क्यों नहीं?

उसे एक पल के लिए लगा कि उसकी विकलांगता अड़चन बन सकती हैं। लेकिन उसने ठान लिया कि वो किसी भी सूरतोहाल माउंट एवरेस्ट पर चढ़कर की रहेगी। उसने अखबारों में क्रिकेटर युवराज सिंह के कैंसर से संघर्ष के बाद फिर मैदान में फिर से उतरने की खबर भी पढ़ी। उसका इरादा अब बुलंद हो गया।

इसी बीच उसे कृतिम पाँव भी मिल गया। अमेरिका में रहने वाले डॉ राकेश श्रीवास्तव और उनके भाई शैलेश श्रीवास्तव, जो इनोवेटिव नाम से एक संस्था चलाते हैं, उन्होंने अरुणिमा के लिए कृत्रिम पैर बनवाया। और, इस कृतिम पैर को पहनकर अरुणिमा फिर से चलने लगी।

लेकिन, कृतिम टांग लगने के बावजूद कुछ दिनों तक अरुणिमा की मुश्किलें जारी रहीं। विकलांगता का प्रमाण पत्र होने बावजूद लोग अरुणिमा पर शक करते। एक बार तो रेलवे सुरक्षा बल के एक जवान ने अरुणिमा की कृतिम टांग खुलवाकर देखा कि वो विकलांग है या नहीं। ऐसे ही कई जगह अरुणिमा सिन्हा को अपमान सहने पड़े।

वैसे तो ट्रेन वाली घटना के बाद रेल मंत्री ममता बनर्जी ने नौकरी देने की घोषणा की थी, लेकिन रेल अधिकारियों ने इस घोषणा पर कोई कार्यवाही नहीं की और हर बार अरुणिमा को अपने दफ्तरों से निराश ही लौटाया । अरुणिमा कई कोशिशों के बावजूद रेल मंत्री से भी नहीं मिल पाई , लेकिन अरुणिमा सिन्हा ने हौसले बुलंद रखे और जो अस्पताल मैं फैसला लिया था उसे पूरा करने के लिए काम चालू कर दिया।

अरुणिमा ने किसी तरह बछेंद्री पाल से संपर्क किया। बछेंद्री पाल माउंट एवरेस्ट पर फतह पाने वाली पहली भारतीय महिला थीं। बछेंद्री पाल से मिलने अरुणिमा सिन्हा जमशेदपुर गयीं। बछेंद्री पाल ने अरुणिमा को निराश नहीं किया। अरुणिमा को हर मुमकिन मदद दी और हमेशा प्रोत्साहित किया।

अरुणिमा ने उत्तराखंड स्थित नेहरू इंस्टीट्यूट ऑफ माउंटेनरिंग (एनआइएम) से पर्वतारोहण का 28 दिन का प्रशिक्षण लिया।उसके बाद इंडियन माउंटेनियरिंग फाउंडेशन यानी आइएमएफ ने उसे हिमालय पर चढ़ने की इजाजत दे दी। प्रशिक्षण पूरा करने के बाद 31 मार्च, 2012 को अरुणिमा सिन्हा का मिशन एवरेस्ट शुरु हुआ। अरुणिमा के एवरेस्ट अभियान को टाटा स्टील एडवेंचर फाउंडेशन ने प्रायोजित किया । फाउंडेशन ने अभियान के आयोजन और मार्गदर्शन के लिए 2012 में एशियन ट्रेकिंग कंपनी से संपर्क किया था।

एशियन ट्रेकिंग कंपनी ने 2012 के वसंत में अरुणिमा को नेपाल की आइलैंड चोटी पर प्रशिक्षण दिया। ५२ दिनों के पर्वतारोहण के बाद 21 मई, 2013 की सुबह 10:55 मिनट पर अरुणिमा ने माउंट एवरेस्ट पर तिरंगा फहराया और 26 साल की उम्र में विश्व की पहली विकलांग पर्वतारोही बनीं।

कृत्रिम पैर के सहारे माउंट एवरेस्ट पर पहुँचने वाली अरुणिमा सिन्हा यहीं नहीं रुकना चाहती हैं। वो और भी बड़ी कामयाबियां हासिल करने का इरादा रखती हैं। उनकी इच्छा ये भी है कि वे शारीरिक रूप से विकलांग लोगों को कुछ इस तरह की मदद करें कि वे भी आसाधारण कामयाबियां हासिल करें और समाज में सम्मान से जियें।

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