मुश्किलों में भी डटकर खड़ा रहा ये शख्स, आज बन गए जल क्रान्ति के नायक
जिन्दगी में सपने देखना और उन्हें सफलता के अंजाम तक पहुंचाना एक कड़ी चुनौती होती है। लेकिन सपने और सफलता के बीच एक अनोखा रिश्ता है। जिन्दगी के उतार-चढ़ाव के बीच सपनों को संजोना और उन्हें हकीकत तक पहुचांने के पीछे भी कहीं न कहीं एक कहानी छुपी हुई होती है। ऐसी ही जिन्दगी की जरूरतों से जूझ कर खुद के साथ दूसरों के लिए भी सफलता हासिल करने वाले एक शख्स हैं अय्यप्पा मसगि ।
अय्यप्पा मसगि की कहानी
योर स्टोरी के मुताबिक अय्यप्पा मसगि का जन्म 1 जून, 1957 को कर्नाटक के गदग जिले के नागरला गाँव में हुआ। पिता महादेवरप्पा गरीब किसान थे। माँ पार्वतम्मा गृहिणी थीं। छह भाई-बहनों में अय्यप्पा सबसे बड़े थे। अय्यप्पा के चार छोटे भाई और एक छोटी बहन हैं। वैसे तो महादेवरप्पा और पार्वतम्मा को कुल 12 संतानें हुईं लेकिन 6 संतानों की शिशु-अवस्था या फिर बाल्यावस्था में ही मौत हो गयी। जो संतानें जीवित रहीं उनमें अय्यप्पा सबसे बड़े थे।
लिंगायत जाति के अय्यप्पा का परिवार संयुक्त-परिवार था। अय्यप्पा के पिता महादेवरप्पा के छह भाई थे और सभी मिलजुल कर रहते थे। परिवार के पास 80 एकड़ ज़मीन थी और इसी ज़मीन में खेती-बाड़ी से संयुक्त-परिवार का गुज़र-बसर होता था। लेकिन, सबसे बड़ी दिक्कत ये थी कि गाँव में अक्सर सूखा पड़ता और फसल नहीं हो पाती। सूखे की मार परिवार ने कई बार झेली थी। वैसे भी गदग जिला ही सूखे की वजह से जाना जाने लगा था। गदग जिले में सूखा आम बात हो गयी थी।
अय्यप्पा के माता-पिता दोनों अशिक्षित थे। माँ अय्यप्पा को पढ़ा-लिखाकर बड़ा आदमी बनाना चाहती थीं। लेकिन,पिता चाहते थे कि अय्यप्पा खेती-बाड़ी में उनका साथ दें। लेकिन, अय्यप्पा मसगी की माँ के ख्यालात दूसरे थे। उन्हें लगता था कि अगर उनका बेटा पढ़-लिख जाएगा तो उसे नौकरी मिलेगी। नौकरी करने से हर महीने निर्धारित समय पर तनख्वाह मिल जायेगी और गदग जिले के किसानों की तरह मौसम पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा। पार्वतम्मा अपने लड़के अय्यप्पा को पढ़ा-लिखा कर बड़ा अफसर बनाने का सपना देखती थीं।
अय्यप्पा भी अपनी माँ से बहुत प्रभावित थे। माँ घर-परिवार चलाने के लिए दिन-रात मेहनत करती थीं। सूखा-ग्रस्त इलाका होने की वजह से गाँव में पानी की इतनी किल्लत थी कि माँ को चार-पांच किलोमीटर दूर जाकर पानी लाना पड़ता। घर की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए पानी बहुत ज़रूरी था। और, पानी के लिए गांववालों के बीच बहुत मारामारी भी होती थी। पानी जुटाने के लिए माँ हर दिन तड़के तीन बजे उठतीं और चार-पांच किलोमीटर दूर पैदल चलकर कुएं के पास जातीं। अक्सर अय्यप्पा भी माँ के साथ पैदल चार-पांच किलोमीटर दूर जाकर घर की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए पानी लाते थे।
माँ की बदौलत ही अय्यप्पा स्कूल जाते थे और उन पर ये जुनून सवार हो गया था कि उन्हें अफसर बनकर अपनी माँ का सपना पूरा करना है। साथ ही उस संकल्प को भी पूरा करना है जहाँ लोगों को पानी के लिए तरसना न पड़े।
अय्यप्पा का दाखिला गाँव के ही सरकारी स्कूल में करवाया गया। उन दिनों ये स्कूल एक मस्जिद में चलता था और अय्यप्पा वहीं जाकर पढ़ते थे। गरीबी का आलम ये था कि अय्यप्पा सिर्फ शर्ट पहनकर ही स्कूल जाते थे। हालत इतनी खराब थी कि एक ही शर्ट महीनों तक पहनते थे।”
अय्यप्पा ने चौथी क्लास तक उसी मस्जिद वाली स्कूल में पढ़ाई की। वे जब पांचवीं में आये तब सरकारी स्कूल का भवन तैयार था। लेकिन, अब उनके सामने बड़ी मुसीबतें थीं। पढ़ाई-लिखाई का खर्च बढ़ गया था। पिता अब भी मदद करने को तैयार नहीं थे। माँ कोशिश तो बहुत कर रही थीं, लेकिन उनके लिए भी किताबें, कलम-दवात के लिए रुपये जुटाना मुश्किल हो रहा था। ऐसे में अय्यप्पा के मन में एक ख्याल आया। उन्होंने अपने टीचरों से मदद मांगने की सोची। टीचर जान चुके थे कि अय्यप्पा बहुत ही मेहनती, आज्ञाकारी और होशियार लड़का है और वो अपनी इन्हीं खूबियों की वजह से आगे चलकर बहुत बड़ा आदमी बनेगा। इसी वजह से जब अय्यप्पा ने अपने शिक्षकों से मदद माँगी तो उन्होंने झट-से हाँ कर दी। लेकिन, अय्यप्पा स्वाभिमानी थे और उन्होंने इस मदद के बदले अपने शिक्षकों की भी मदद की। अय्यप्पा अपने शिक्षकों के घर जाते और वहां पर वे साफ़-सफाई का काम करते। अय्यप्पा अपने टीचरों के घर-परिवार की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए कुएं से पानी भी लाते थे। अपने टीचरों के घर में जो काम उन्हें सौंपा जाता वे उसे मन लगाकर पूरा करते थे। टीचर भी अय्यप्पा की सेवा से बहुत खुश थे।
कई बार तो ऐसा भी हुआ कि टीचरों ने अय्यप्पा को अपने घर ही में रख लिया। कई दिनों बाद अय्यप्पा अपने घर जाते थे। माँ भी इस बात पर बहुत खुश थीं कि टीचर सारे अय्यप्पा को बहुत प्यार करते थे और वे उन पर मेहरबान भी थे।
हाई स्कूल की पढ़ाई के दौरान भी शिक्षकों ने अय्यप्पा की खूब मदद की। अय्यप्पा अपने पिता की मानसिकता को पहले से जानते थे और इसी वजह से उनकी इन बातों का उन पर कोई असर नहीं पड़ा। अय्यप्पा ने अपने टीचरों की मदद से पढ़ाई-लिखाई जारी रखी।
अय्यप्पा ने अपने शिक्षकों को कभी भी निराश नहीं किया। दसवीं की परीक्षा में शानदार प्रदर्शन कर अय्यप्पा ने अपने शिक्षकों का नाम खूब रोशन किया। अय्यप्पा ने वो काम कर दिखाया था जिसे इन शिक्षकों के किसी भी छात्र ने पहले नहीं किया था। अय्यप्पा ने डिस्टिंगक्शन में दसवीं की परीक्षा पास की।
सूडी के गुरु महंतेश्वर हाई स्कूल से डिस्टिंगक्शन में दसवीं पास करने के बाद अय्यप्पा प्री-यूनिवर्सिटी कोर्स में साइंस पढ़ना चाहते थे। लेकिन, कॉलेज की फीस इतनी ज्यादा थी कि माँ उसका बोझ उठाने में असमर्थ थीं। गरीबी और हालात की मजबूरी में अय्यप्पा को साइंस के बजाय कॉमर्स लेना पड़ा।
अय्यप्पा का दाखिला नवलगुंडा के शंकर आर्ट्स एंड साइंस कॉलेज में हुआ। इस कॉलेज में भी अय्यप्पा ने मन लगाकर पढ़ाई ली। हमेशा की तरह ही इस बार भी उनकी मेहनत रंग लाई और वे फर्स्ट क्लास में पास हुए।
पीयूसी पूरा करने के बाद अय्यप्पा दुविधा में पड़ गए। उन्हें ये समझ में नहीं आ रहा था कि उन्हें आगे क्या करना है। चूँकि उन्होंने कईयों से सुना था कि इंडस्ट्रियल ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट यानी आईटीआई का कोर्स करने से नौकरी आसानी से मिल जाती है उन्होंने कॉमर्स में आगे की पढ़ाई करने के बजाय आईटीआई में दाखिला लिया।
उन दिनों इलेक्ट्रिकल इंजीनियरों की बहुत मांग थी। बिजलीकरण का दौर था और राज्य सरकारें हर शहर और हर गाँव में बिजली पहुंचाने की कोशिश में जुटी थीं। इसी वजह से अय्यप्पा ने भी आईटीआई में इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग के लिए अपनी अर्जी दी। आईटीआई की प्रवेश परीक्षा में अय्यप्पा को 100 में से 98 नंबर मिले। लेकिन, एक प्रशासनिक गलती की वजह से अय्यप्पा को फिटर कोर्स यानी मेस्त्री वाले कोर्स में डाला गया। फिटर कोर्स में उन दिनों उन लोगों को भी दाखिला दिया जाता था जो कि दसवीं भी पास नहीं हैं। अय्यप्पा को 100 में से 98 नंबर पाने के बावजूद फिटर कोर्स में डाला गया जबकि वे इलेक्ट्रिकल कोर्स के हकदार थे।
अब चूँकि अय्यप्पा के पास कोई दूसरा रास्ता नहीं था उन्होंने फिटर कोर्स में दाखिले के लिए हाँ कर दी। लेकिन, अब उनके पास एक बड़ी चुनौती थी। फिटर कोर्स के लिए उन्हें फीस जमा करनी थी। फीस जमा करने के लिए अय्यप्पा को अपनी माँ के गहने बेचने पड़े।
आईटीआई में दाखिले के बाद पहले दिन से ही अय्यप्पा ने अपने काम और अनुशासन से शिक्षकों का दिल जीतना शुरू कर दिया। नोट बुक्स देखकर तिमप्पा मास्टर इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने अय्यप्पा से पूछ लिया कि – “तुम तो बहुत इंटेलीजेंट हो, फिर फिटर का काम क्यों सीख रहे हो? इस सवाल के जवाब में अय्यप्पा ने उनके साथ हुई नाइंसाफी और प्रशासनिक गलती के बारे में बताया। इसके बाद तिमप्पा मास्टर आईटीआई के प्रिंसिपल के पास गए और अय्यप्पा को इंसाफ दिलाने की गुहार लगाई। प्रिंसिपल को इंसाफ करने के लिए बाध्य होना पड़ा, लेकिन वे अय्यप्पा का दाखिला इलेक्ट्रिकल्स में नहीं करवा पाए और अय्यप्पा को मैकेनिकल विभाग में जगह दी गयी जोकि फिटर से अच्छी थी।
लेकिन, आईटीआई में भी अय्यप्पा को गरीबी की मार झेलनी पड़ी थी। उन दिनों रिकार्ड बुक और दूसरी ज़रूरी किताबें खरीदने के लिए भी उनके पास 40 रूपए तक नहीं थे। कॉलेज के 180 विद्यार्थियों में से अय्यप्पा को छोड़ सभी ने किताबें और रिकार्ड बुक्स खरीब ली थीं। जब ये बात तिमप्पा मास्टर को पता चली तो उन्होंने इसकी जानकारी हीरेमट मास्टर को दी। हीरेमट मास्टर को लगा कि अय्यप्पा ने उनके पिता के भेजे हुए रुपये खर्च कर दिए हैं और इसी वजह से उनके पास किताबें खरीदने को रुपये नहीं हैं। लेकिन, या बात सच नहीं थी। पिता ने अय्यप्पा को रुपये दिए ही नहीं थे। गलतफहमी का शिकार हीरेमट मास्टर ने अय्यप्पा को अपने पास बुलाया तो कसकर गाल पर चांटा जड़ दिया और पूछा कि पिता के भिजवाये रुपयों को कहाँ खर्च कर दिया। सवाल के जवाब में जब अय्यप्पा ने सच्चाई बताई तो हीरेमट मास्टर को बहुत पछतावा हुआ और वो रो बैठे। इसके बाद हीरेमट मास्टर ने अय्यप्पा को किताबें खरीदने के लिए अपनी जेब से रुपये दिए ।
इन सब छोटी-बड़ी घटनाओं के बीच अय्यप्पा ने आईटीआई को कोर्स पूरा कर लिया। आईटीआई की परीक्षाओं में भी अय्यप्पा ने शानदार प्रदर्शन कर अपने कॉलेज और टीचरों का नाम रोशन किया। इस बार भी वे डिस्टिंक्शन में पास हुए। चूँकि अय्यप्पा को आईटीआई की परीक्षाओं में शानदार नंबर मिले थे उन्हें ‘भारत अर्थ मूवर्स’ नाम की सरकारी संस्था में प्रशिक्षुता के लिए चुना गया।
‘भारत अर्थ मूवर्स’ में अय्यप्पा को प्रशिक्षु होने के नाते 150 रुपये महीना वजीफे के तौर पर दिए जाने लगे। इन डेढ़ सौ रुपयों में से अय्यप्पा सिर्फ 60 रुपये अपनी ज़रूरतों के लिए खर्च करते और बाकी 90 रुपये की बचत करते। बतौर प्रशिक्षु अय्यप्पा का काम इतना बढ़िया था कि जल्द ही ‘भारत अर्थ मूवर्स’ में उनकी नौकरी पक्की कर दी गयी। उनकी तनख्वाह महीने आठ सौ रुपये तय की गयी। जून, 1980 में अय्यप्पा को अपनी ज़िंदगी की पहली पगार मिली।
‘भारत अर्थ मूवर्स’ में भी अपनी मेहनत और प्रतिभा के बल पर अय्यप्पा ने खूब नाम कमाया। ‘भारत अर्थ मूवर्स’ में नौकरी करने के दौरान उन्हें चेन्नई में होने जा रहे राज्य स्तरीय कौशल प्रतियोगिता के बारे में पता चला। अय्यप्पा ने भी इस प्रतियोगिता में हिस्सा लिया और उनका कौशल देखकर एल एंड टी कंपनी के अधिकारी इतना प्रभावित हुए कि उन्हें एक हज़ार एक सौ रुपये की मासिक तनख्वाह पर नौकरी देने की पेशकश की। चूँकि एल एंड टी कंपनी बहुत ही मशहूर और बड़ी कंपनी थी अय्यप्पा ने नौकरी की पेशकश को स्वीकार कर लिया। एल एंड टी कंपनी में भी अय्यप्पा ने अपने कौशल, अपनी ईमानदारी और मेहनत से खूब नाम कमाया और साल दर साल तरक्की की।
इसी दौरान अय्यप्पा की शादी शारदा देवी से की गयी। शारदा देवी के पिता कर्नाटक राज्य सड़क परिवहन निगम में काम करते थे और उनके पास अच्छी नौकरी के साथ-साथ अच्छी-खासी धन-दौलत भी थी।
एल एंड टी कंपनी में काम करने के दौरान ही अय्यप्पा ने मैसूर एजुकेशनल इंस्टिट्यूट पॉलिटेक्निक से मैकेनिकल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा का कोर्स भी पूरा कर लिया। ये कोर्स भी अय्यप्पा ने डिस्टिंक्शन में पास किया। एल एंड टी कंपनी में काम करते हुए ही उन्हें बेंगलुरु विश्वविद्यालय से स्टटिस्टिकल क्वालिटी कंट्रोल में पोस्ट ग्रेजुएशन करने का मौका मिला। ये मौका अय्यप्पा के दूसरे सहकर्मियों को भी मिला था, लेकिन अय्यप्पा ही परीक्षा पास कर पाए थे।
टॉयलेट में बैठकर पढ़ाई करने का नतीजा भी अच्छा ही निकला। इस पढ़ाई की वजह से वे पोस्ट ग्रेजुएट भी बन गए। कंपनी में उनकी तरक्की हुई और वे कर्मचारी कैडर से मैनेजमेंट कैडर में आ गए। मैनेजमेंट कैडर में रहते हुए अय्यप्पा ने कंपनी के लिए लाखों रुपयों की बचत की। अय्यप्पा ने रद्दी सामग्री का दुबारा इस्तेमाल कर एक साल में दो करोड़ रूपये की बचत की थी। इसके लिए उनकी भूरि- भूरि प्रशंसा भी की गयी। इस तरह की प्रशंसा उन्हें कई बार मिली थी और वे इससे खुश भी होते।
लेकिन, उनकी दिलचस्पी तारीफों के कसीदे सुनने में नहीं थी। वे अपने एक मिशन को कामयाब बनाना चाहते थे। वो एक ऐसा मिशन था जोकि बचपन से उनके मन-मस्तिष्क को परेशान करता रहा था।
ये मिशन था- गाँवों और शहरों में पानी की किल्लत को दूर करना। मिशन आसान नहीं था, एक अकेला आदमी ऐसा करने की सोच भी नहीं सकता था। लेकिन, अय्यप्पा ने प्रण लिया कि वे इस मिशन को कामयाब बनाने के लिए अपना जी जान लगा देंगे।
अपने लक्ष्य को पाने के लिए अय्यप्पा ने एल एंड टी कंपनी से इस्तीफ़ा दे दिया और पानी की किल्लत दूर करने के उपाय खोजने शुरू किये। जब पत्नी को इस बात का पता चला कि अय्यप्पा ने नौकरी छोड़ दी है और पानी की समस्या दूर करने के उपाय ढूँढने निकले हैं तब उन्हें बहुत गुस्सा आया। पत्नी ने अय्यप्पा को खूब खरी-खोटी सुनायी। कई अपशब्द कहे। पत्नी ने अय्यप्पा को ‘नायालक’ और ‘पागल’ भी करार दिया। अय्यप्पा की बड़ी बेटी ने भी अपनी माँ का ही साथ दिया। पत्नी और बड़ी बेटी के अपशब्दों और निरुत्साह करने वाली बातों से अय्यप्पा को बहुत दुःख हुआ । लेकिन उन्होंने अपनी पत्नी के अपशब्दों को चुनौती की तरह स्वीकार किया और ठान ली कि वे ये साबित करेंगे कि वे नालायक और पागल नहीं हैं। और इसके बाद अय्यप्पा अपने मिशन को कामयाब करने की कोशिश में जी-जान लगाकर जुट गए।
अय्यप्पा ने सबसे पहले अपने गाँव के करीब वीरापुरा में 6 एकड़ ज़मीन खरीदी और अपने प्रयोग शुरू किये। ये छह एकड़ ज़मीन उन्होंने 1.68 लाख रुपये में खरीदी थी। उन्होंने ये ज़मीन इस वजह से खरीदी थी क्योंकि इलाके में अक्सर सूखा पड़ता था और पानी की किल्लत रहती थी। सूखाग्रस्त इलाके से ही अय्यप्पा अपने प्रयोग शुरू करना चाहते थे। उन्होंने इस छह एकड़ ज़मीन में नारियल, केले, सुपारी, कॉफ़ी आदि के पेड़ लगाये। लेकिन, ज़मीन खरीदने के बाद लगातार तीन साल सूखा पड़ा। सूखा भी मामूली सूखा नहीं था। सारे कुएं, तालाब, नदी-नाले – सभी सूख गए थे। सारे बोर-वेल भी सूख गए। पानी था ही नहीं इसी वजह से फसल भी नहीं हो पायी थी। कई पेड़-पौधे भी सूखकर गिर गए। सूखे के दौरान अय्यप्पा ने अपनी ज़मीन पर एक झील बनाई ताकि जब भी बारिश आये तो ये झील पानी से भर जाए और उसी पानी से साल-भर खेतों और बाग़ में पानी का इस्तेमाल किया जा सके।
तीन साल के सूखे के बाद यानी चौथे साल 2004 में बारिश हुई। लेकिन, बारिश इतनी ज्यादा हुई कि बाढ़ आ गयी। जो खेत सूखे थे और बूँद-बूँद पानी को तरस रहे थे वहीं बस पानी ही पानी था। पानी इतना ज्यादा था कि वो सब कुछ बर्बाद कर रहा था। कई मकान बाढ़ में बह गए थे, कईयों की जान चली गयी थी। वो बहुत भयानक स्थिति थी। अय्यप्पा ने उन दिनों को अपने जीवन के सबसे भयावह दिन बताते हुए कहा, “मेरी भी जान पर बन आयी थी। पानी इतना ज्यादा था कि हर तरफ पानी ही पानी दिखाई दे रहा था। गाँव में एक समय ऐसा था जब लोग बूँद-बूँद पानी को तरस रहे थे और वहीं वो दिन ऐसा था जहाँ लोग पानी से नफरत कर रहे थे। मेरा घर भी पानी में डूब गया था और मुझे अपनी जान बचाने के लिए पेड़ पर चढ़ना पड़ा था। पेड़ पर ही मैंने रात भी गुजारी थी। जब पानी का स्तर कम हो गया तब जाकर मैं नीचे उतरा था।”
तीन साल के सूखे के बाद बाढ़ के अनुभव ने अय्यप्पा मसगि के दिमाग में नए विचारों और प्रयोगों को जन्म दिया। इस अनुभव से उन्हें आभास हुआ कि जब पानी है तब बहुत ज्यादा है और जब नहीं है तब कुछ भी नहीं है। उन्हें अहसास हुआ कि बारिश के मौसम में जो पानी बरसा वो बेकार चला गया। इस ज्ञानार्जन के बाद अय्यप्पा के मन में एक योजना सूझी। उन्होंने मानव निर्मित कुओं और तालाबों के ज़रिये बारिश के पानी को बचाकर रखने की योजना बनाई। उन्होंने अपनी छह एकड़ ज़मीन पर ऐसी जगह तालाब और कुएं बनवाये जहाँ बारिश का पानी आकर ठहर जाता था। अय्यप्पा की ये योजना कारगर साबित हुई और उनकी ज़मीन पर फसल, फलों के पेड़ों, बागवानी, कॉफ़ी,नारियल, केले, रबर आदि के पेड़ों के लिए भी साल-भर पानी उपलब्ध रहने लगा। अय्यप्पा ने अपने प्रयोग से ये साबित कर दिखाया था कि पानी की बचत से ही पानी की किल्लत को दूर किया जा सकता है। बारिश के पानी को बचाकर ही सूखे जैसे हालात में भी फसल उगाही की जा सकती है।
अपने कामयाब प्रयोग से उत्साहित अय्यप्पा मसगि ने जन संरक्षण के प्रति लोगों में जागरूकता लाने के लिए नया आन्दोलन शुरू करने का बड़ा फैसला लिया। अपने फैसले को अमलीजामा पहनाने के लिए उन्होंने साल 2005 में ‘वाटर लिटरेसी फाउंडेशन’ के नाम से एक गैर-सरकारी संस्था की स्थापना की और ‘जल साक्षरता आन्दोलन’ शुरू किया। इस आन्दोलन के तहत अय्यप्पा गाँव-गाँव और शहर-शहर जाकर लोगों में पानी की बचत और उसके सदुपयोग से होने वाले फायदे के बारे में बताने लगे। अय्यप्पा ने इस आन्दोलन के तहत लोगों को बारिश के पानी को बचाने की अलग-अलग तरकीबें भी बताईं-सिखाईं। अय्यप्पा की बताई तरकीबों को अमल में लाकर कई लोगों ने फायदा उठाना शुरू किया। अपने जल साक्षरता आन्दोलन की वजह से अय्यप्पा कुछ ही दिनों में काफी लोकप्रिय हो गए। दूर-दूर तक उनकी ख्याति पहुँची और दूर-दूर से लोग उन्हें अपने यहाँ बुलवाकर पानी की बचत के तौर-तरीके सीखने लगे।
अय्यप्पा मसगि ज्यादातर मामलों में एक ख़ास और बेहद कारगर तकनीक/मॉडल का इस्तेमाल करते हैं। इस मॉडल के तहत अय्यप्पा जमीन में गड्ढे खोदते हैं और फिर उसमें रेत, मिट्टी, छोटे-बड़े कंकड़, पत्थर आदि डालते हैं। ऐसा करने से एक ऐसी संरचना बनती है जहाँ बारिश होने पर पानी आकर जमा होने लगता है। इस संरचना के भू-जल का स्तर भी बढ़ता है। यही तकनीक अब कई राज्यों में सरकारी संस्थाओं, आम लोगों, किसानों द्वारा भी इस्तेमाल में लाई जा रही है।
अय्यप्पा मसगि को एक बहुत बड़ी कामयाबी उस समय मिली जब उन्होंने बेंगलुरु से कुछ ही किलोमीटर दूर अर्देशनहल्ली गाँव में सारे सूखे बोर-वेल को पुनर्जीवित कर दिया। हुआ यूँ था कि अर्देशनहल्ली गाँव में सारे कुओं का पानी दूषित हो गया था। अर्देशनहल्ली गाँव के आसपास दवाईयां बनाने वाली कई फक्ट्रियाँ थीं और इन फक्ट्रियों से निकलने वाले रसायनों से गाँव के सारे कुएं और तालाब दूषित हो गए थे। पानी इतना दूषित हो गया था कि उसे पीने पर कई तरह की बीमारियाँ होने का खतरा था। अय्यप्पा को जब इस गाँव के बारे में पता चला उन्होंने इसे एक नयी चुनौती के तौर पर स्वीकार किया। सबसे पहले उन्होंने स्थानीय लोगों के साथ मिलकर दवाईयों की फक्ट्रियों के खिलाफ आन्दोलन किया और जल-वायु – दोनों को प्रदूषित कर रहीं फक्ट्रियों को बंद करवाया। इसके बाद अपनी ईजाद की हुई तकनीकों से पानी की बचत करवाई और बारिश के पानी से सारे कुओं को पुनर्जीवित किया। इस काम की चारों तरफ सराहना हुई। ‘जल-पुरुष’ के नाम से मशहूर राजेंद्र सिंह को जब इस कामयाब आन्दोलन और प्रयोग के बारे में पता चला तो वे भी अध्ययन करने अर्देशनहल्ली गाँव आये थे।
अय्यप्पा मसगि के काम और उनके जल साक्षरता आन्दोलन से प्रभावित होकर विश्वविख्यात ‘अशोका फाउंडेशन’ भी उनकी मदद को आगे आया। ‘अशोका फाउंडेशन’ ने अय्यप्पा को अपनी फ़ेलोशिप से नवाज़ा और तीन साल तक तीस हज़ार रुपये महीना आर्थिक सहायता राशि के तौर पर देने का एलान किया। ‘अशोका फाउंडेशन’ की फ़ेलोशिप मिलने के बाद अय्यप्पा की लोकप्रियता और भी बढ़ गयी। उनके काम का बड़ी तेज़ी के विस्तार होने लगा। अलग-अलग राज्यों की सरकारें उन्हें अपना यहाँ बुलवाकर उनसे जल-संरक्षण के तौर-तरीके और तकनीकें सीखने लगीं। कई सारे लोग और संस्थाओं ने भी अय्यप्पा की सेवाएं लेना शुरू किया।
अय्यप्पा मसगि ने वर्षा-जल संचयन, कम पानी के इस्तेमाल से खेती-बाड़ी की नयी, कारगर और बेहद फायदेमद तकनीकों से अब तक लाखों किसानों और दूसरे लोगों को फायदा पहुंचाया है। जल-संरक्षण के लिए समर्पित अय्यप्पा को उनकी समाज-सेवा और जन-आन्दोलन के लिए कई अवार्डों और पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। वे प्रतिष्टित जमनालाल बजाज राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित किये जा चुके हैं। उनके चाहने वाले और उनकी तरकीबों से फायदा पाने वाले लोग उन्हें अब ‘पानी का डाक्टर’ कहकर बुलाते हैं। जिस तरह के काम कर अय्यप्पा ने पानी की बचत को लेकर जागरूकता अभियान चलाया है उसकी व्यापकता, विस्तार और कामयाबी को ध्यान में रखकर कुछ लोग उन्हें ‘जल-गांधी’ कहते हैं और उनकी तुलना महात्मा गांधी से करते हैं। कई लोग अब उन्हें ‘आधुनिक भगीरथ’ के नाम से भी जानते-पहचानते हैं ।
अय्यप्पा मसगि के आन्दोलन से जुड़े आंकड़ों पर नज़र डाली जाय तब भी उनके काम की महत्ता का पता चलता है। वे जून, 2016 तक 7000 करोड़ लीटर बारिश के पानी का संचयन करवा चुके हैं। उन्होंने 500 से ज्यादा झीलें बनवाई हैं। 200 से ज्यादा शहरी अपार्टमेंट में वर्षा-जल संचयन परियोजना को लागू करवाया है। हज़ारों कुओं को पुनर्जीवित किया है। पचास से ज्यादा शैक्षणिक संस्थाओं और सत्तर से ज्यादा उद्योगों-कारखानों में बारिश के जल को संरक्षित करने के लिए भी सफलतापूर्वक परियोजना लागू की हैं।
अय्यप्पा मसगि नियमित रूप से अलग-अलग गाँवों और शहरों का दौरा कर लोगों में जल-संरक्षण के प्रति जागरूकता लाने का काम बिना रुके करते रहते हैं। अय्यप्पा मसगि की वजह से कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, गोवा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, पंजाब और राजस्थान राज्यों में लाखों किसान और दूसरे लोगों ने पानी की बचत कर अपने जीवन को तरक्कीनुमा, खुशहाल और सुखी बनाया है।
साल 2008 में अय्यप्पा मसगि ने ‘रेन वाटर कॉन्सेप्ट्स (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड’ नाम से एक कंपनी खोली। अय्यप्पा मसगि अपनी की कंपनी के ज़रिये अलग-अलग लोगों और संस्थाओं से फीस लेकर उन्हें पानी के बचत और सदुपयोग के तौर-तरीके बता रहे हैं।
अय्यप्पा मसगि की ख़ास बात ये है कि अगर मामला पानी का हो तो वे कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं। उनके लिए न दिन मायने रखता है न रात। वे काम के लिए फौरी राजी हो जाते हैं। वे कहते हैं, “मेरा मिशन अभी पूरा नहीं हुआ है। मैं भारत को वो देश बनाना चाहता हूँ जहाँ पीने और सिंचाई के लिए पानी की किल्लत कभी न हो। मैं भारत में ऐसी स्थिति पैदा करना चाहता हूँ जहाँ आवश्यकता से अधिक पानी हो। भारत में कोई भी पानी को न तरसे।”
अय्यप्पा मसगि लोगों को सचेत करने से भी नहीं चूकते हैं। वे चेतावनी देते हुए कहते हैं, “अगर हम लोगों ने अभी से बारिश के पानी की बचत नहीं की और पानी का सही इस्तेमाल नहीं किया तो आने वाले दिनों में सारा देश बूँद-बूँद पानी को तरसेगा। पानी की बचत ही समय की मांग है।”
अय्यप्पा मसगि ये भी कहते हैं कि उनके जैसे कुछ कार्यकर्ताओं और आन्दोलनकारियों से पानी की बचत नहीं होगी। पानी की बचत सही मायने में तभी होगी जब देश का हर एक नागरिक पानी की बचत करेगा, पानी का संरक्षण करेगा। पानी का संरक्षण सिर्फ सरकारों या फिर कुछ संस्थाओं की ज़िम्मेदारी नहीं है बल्कि देश के हर नागरिक की ज़िम्मेदारी है।
बड़ी बात ये भी है कि अय्यप्पा मसगि ने अपने मिशन के तहत बंजर भूमि को उपजाऊ बनाने की कामयाब कोशिश भी है। उन्होंने आंध्रप्रदेश के अनंतपुर जिले में ये कामयाब प्रयोग किया है। अय्यप्पा मसगि ने अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर सूखाग्रस्त अनंतपुर जिले में अस्सी एकड़ ज़मीन खरीदी। ये ज़मीन ऐसी जगह खरीदी गयी जहाँ बारिश बहुत कम होती है और सारी ज़मीन पर पत्थरों के ढेर थे। लोग इसे बंजर भूमि करार देकर वहां से चले गए थे। आंध्रप्रदेश का अनंतपुर वो जिला है जहाँ राज्य के किसी भी जिले की तुलना में सबसे कम बारिश होती है। ऐसी जगह अय्यप्पा ने अपना प्रयोग शुरू किया। उन्होंने इस अस्सी एकड़ भूमि में कई सारे तालाब बनवाए। कई नए कुएं खुदवाए। पुराने सूखे कुओं को पुनर्जीवित किया। जब कभी बारिश हुई उसका सारा पानी बेकार जाने से बचाया। ये प्रयोग कामयाब भी हुआ। अय्यप्पा मसगि ने अपनी मेहनत से बंजर ज़मीन को उपजाऊ बना दिया। जहाँ एक पौधा भी जीवित नहीं रहता था वहां उन्होंने सब्जियां उगायीं। फलों के पेड़ लगाये। धान की भी खेती की और कर भी रहे हैं। अय्यप्पा मसगि का कहना है कि बंजर भूमि को उपजाऊ बनाना तभी संभव हुआ जब बारिश के पानी का संरक्षण किया गया। बारिश के पानी के सही संरक्षण से भू-जल का स्तर भी बढ़ा।
अय्यप्पा मसगि बंजर भूमि को उपजाऊ बनाने के इस कामयाब प्रयोग/ मॉडल को अब देश के अलग-अलग बंजर इलाकों में लागू करने की योजना बना रहे हैं। कई जगह उन्होंने ये काम शुरू भी कर दिया है।
दिलचस्प बात ये भी है कि एक समय अय्यप्पा को नालायक और पागल कहने वाली उनकी पत्नी अब अपने पति की कामयाबियों पर बहुत फक्र महसूस करती हैं। अय्यप्पा मसगि की तीनों बेटियाँ – सुजाता, सुनीता और निवेदिता अब जल जागरूकता अभियान में अपने पिता की मदद करती हैं। बेटा नवीनचंद्रा सिविल इंजीनियर हैं।
अय्यप्पा मसगि के ‘कंजूस’ और ‘खुदगर्ज़’ पिता महादेवप्पा सौ साल से भी ज्यादा जिए और उनकी मृत्यु जनवरी, 2016 में हुई।
अय्यप्पा के हाथों लोहे की सीख से ज़ख़्मी हुए सहपाठी बागली वीरभद्र इन दिनों गाँव में किराना की दूकान चला रहे हैं।
एक बड़ी बात ये भी है कि अय्यप्पा मसगि मशहूर सामाजिक कार्यकर्ता और जन-आंदोलनकारी अन्ना हजारे और जल-आंदोलनों के जाने-पहचाने जाने वाले ‘जल-पुरुष’ डॉ. राजेंद्र सिंह से भी मिले और अपने आंदोलन को कामयाब बनाने के लिए उनसे सुझाव और मार्ग-दर्शन लिया। अय्यप्पा विदेश जाकर अलग-अलग देशों में पानी के बचत की योजनाओं और परियोजनाओं का अध्ययन भी करना चाहते हैं।
अय्यप्पा मसगि एक और बहुत बड़ा काम कर रहे हैं। अपने जल-संरक्षण आन्दोलन के तहत वे गाँव-गाँव, शहर-शहर जाकर ‘जल योद्धा’ तैयार कर रहे हैं। अपने आस-पड़ोस के लोगों को जल-संरक्षण के महत्त्व को समझाना और साथ ही लोगों को जल-संरक्षण के आसान और कारगर तौर-तरीके अपनाने के लिए प्रेरित करना ही इन जल योद्धाओं की ज़िम्मेदारी है।